रांची(RANCHI)- जैसे जैसे लोकसभा का चुनाव नजदीक आता दिख रहा है, राजनीतिक पार्टियों में संगठनात्मक बदलाव की प्रक्रिया तेज हो रही है. वर्तमान चेहरों को रिप्लेस कर नये चेहरों को सामने लाया जा रहा है, सामाजिक समीकरणों के हिसाब से रणनीतियों का निर्माण किया जा रहा है, वैसे चेहरे जो आलाकमान की पसंद तो जरुर हैं, लेकिन सामाजिक समीकरण इसकी इजाजत नहीं देता, किनारा कर उनके कंधों पर दूसरी जिम्मेवारियां दी जा रही है.
अपने अपने आधार मतों से बाहर निकलने की कोशिश
इसके साथ ही 2024 लोकसभा चुनाव के पहले हर राजनीतिक दल की कोशिश अपने-अपने आधार मतों में विस्तार की है, शायद यही कारण है कि राजनीतिक दलों में अपने-अपने आधार मतों से बाहर निकल चेहरों को सामने लाने की होड़ मची है. इसकी पहली शुरुआत भाजपा की ओर से की गयी, जिसने झारखंड में गैर झारखंडी चेहरों को आगे कर विभिन्न राजनीतिक प्रयोग कियें, उसकी पहली कोशिश हिन्दुत्व की चासनी में आदिवासी मतों का धुर्वीकरण की थी. उसका मानना था कि यदि आदिवासी समाज में हिन्दुत्व का शिगूफा चल निकला तो बाहरी भीतरी, आदिवासी गैर आदिवासी जैसे सभी मुद्दे हाशिये पर चले जायेगें और इस आदिवासी बहुल राज्य में गैर आदिवासियों के आसरे राजनीति करना बेहद आसान हो जायेगा.
बाबूलाल के डोमिसाइल नीति से भाजपा के हाथ जले हुए थें
दरअसल झारखंड गठन के बाद बाबूलाल मरांडी को पहला सीएम बनाने वाली भाजपा के हाथ बाबूलाल के राजनीतिक प्रयोग से जले हुए थें. डोमिसाइल नीति के बाद झारखंड में जिस प्रकार से राजनीतिक भूचाल आया था. भाजपा इससे निजात पाना चाहती थी, भाजपा खेमे में बाबूलाल को हिकारत भरी नजर से देखा जा रहा था, दावा किया जा रहा था कि बाबूलाल के डोमिसाइल पॉलिसी के कारण गैर आदिवासी मतदाताओं ने भाजपा से दूरी बना ली, और जिसका नुकसान भाजपा को उठाना पड़ा.
पीएम मोदी की आँधी में गैर आदिवासी चेहरे को लॉच करने का असफल प्रयोग
हालांकि इस बीच भाजपा ने आदिवासी चेहरे को रुप में अर्जुन मुंडा को भी आजमाया, लेकिन उनमें बाबूलाल की धमक नहीं थी. इस बीच जब 2019 में पीएम मोदी की आंधी चली तो भाजपा को लगा कि झारखंड की जमीन पर किसी गैर आदिवासी चेहरे को लॉंच करने का इससे मुफीद समय और कोई नहीं हो सकता, राजनीति में हिन्दुत्व का ज्वार अपनी ऊंचाइयों पर है, इस समय आदिवासी-गैर आदिवासी जैसे सभी नारों को हिन्दू समाज को विभाजन करने वाला बता कर शंट किया जा सकता है और इसी सोच के तहत रघुवर दास को सामने लाया गया.
गैर आदिवासी चेहरे से आदिवासी समाज में आक्रोश
लेकिन सच्चाई इससे उलट थी, आदिवासी समूहों के बीच उनकी राजनीतिक महात्वाकांशाएं हिलोरें मार रही थी, उनके अन्दर एक आक्रोश पनप रहा था और झामुमो आदिवासी समूहों के बीच पनप रहे इस राजनीतिक आक्रोश को सहला रहा था, जिसकी परिणति ना सिर्फ भाजपा के सफाये के रुप में हुई, बल्कि खुद रघुवर दास भी अपनी कुर्सी नहीं बचा सकें और आज थक हार कर भाजपा को उसी बाबूलाल के चेहरे को सामने लाना पड़ा, जिसे वह कभी हिकारत भरी नजरों से देखता था.
कांग्रेस और झामुमो में बाबूलाल का काट खोजने की होड़
भाजपा के इस राजनीतिक प्रयोग से कांग्रेस सहित झामुमो भी हैरत में है, बाबूलाल का काट खोजने की तैयारियां शुरु हो गयी है. झामुमो को तो यह भय सता रहा है कि जिस बाबूलाल ने दुमका के उसके किले में घूस कर दिशोम गुरु को पटकनी देने में कामयाबी हासिल की थी, उससे अब कैसे निपटा जाये.
झामुमो आश्वस्त, उसके पास राज्य का सबसे बड़ा आदिवासी चेहरा
हालांकि झामुमो के पास हेमंत सोरेन के रुप में राज्य का सबसे बड़ा और विश्वसनीय आदिवासी चेहरा है. असली संकट कांग्रेस का है, भाजपा की तरह ही उसका जनाधार भी गैर आदिवासी और मूलवासियों के बीच ही है. यह वही समूह है जिसे झामुमो बार बार गैर झारखंडी के रुप में चिन्हित करती रहती है. कांग्रेस की दुविधा इस समूह को अपने साथ रखने के साथ ही आदिवासी-मूलवासियों के बीच अपने आधार का विस्तार की है. यही कारण है कि बाबूलाल की ताजपोशी के बाद कांग्रेस के अन्दर चेहरा बदलने की चर्चा तेज हो गयी है.
बंधु तिर्की पर दांव लगा सकती है कांग्रेस
अन्दर खाने चर्चा है कि कांग्रेस बंधु तिर्की पर अपना दांव लगा सकती है, हालांकि इसके साथ ही कई दूसरे चेहरों पर भी चर्चा जारी है, एक नाम डॉ अजय कुमार की भी है, जिन्हे राहुल गांधी की पहली पसंद मानी जाती है. लेकिन डॉ अजय के पास वह सामाजिक समीकरण नहीं है, जिसका प्रतिनिधित्व बंधु तिर्की करते हैं.
यहां यह भी याद दिला दें कि जब बाबूलाल मरांडी ने अपने तरकश से डोमिसाइल को निकाला था, जब बंधु तिर्की उसके सबसे बड़े पैरोकार के रुप में सामने आये थें. इन्ही के नेतृत्व में आदिवासी-मूलवासियों का जनसैलाब रांची की सड़कों पर उतरा करता था, साफ है कि आदिवासी समाज में बंधु तिर्की की पकड़ मजबूत है, और इस चेहरे का लाभ कांग्रेस को मिल सकता है. हालांकि इसके साथ कांग्रेस को यह भी ध्यान में रखना होगा कि कहीं आदिवासी मतों के धुर्वीकरण की कोशिश में वह अपने परंपरागत मतदाताओं का विश्वास को नहीं खो दे.