Ranchi- टिकट वितरण के साथ ही यशस्विनी सहाय अपने पिता और दिग्गज कांग्रेसी नेता सुबोधकांत सहाय के साथ प्रचार अभियान पर निकल पड़ी हैं. इसी कड़ी में यशस्विनी रांची संसदीय सीट पर उम्मीदवारों की रेस में पिछड़ चुके चाचा रामटहल चौधरी से भी आशीर्वाद लेने पहुंची और इसके साथ ही सियासी गलियारों में बहस तेज हो गयी कि इस कुर्मी दिग्गज ने अपने सारे गिले-शिकवे को भूला सियासी डगर से अनजान अपने चिर-प्रतिद्वन्धी सुबोधकांत की बिटिया यशस्विनी को जीत की आशीर्वाद दिया या फिर एक बार फिर से सुबोधकांत की सियासी चाहत में दीवार खड़ा करने की तैयारी हैं.
भरे मन से जीत का आशीर्वाद या तैयारी कुछ और
सियासी गलियारों में राम टहल चौधरी की भावी रणनीति का आकलन भी किया जा रहा है, मन को टटोलने की कोशिश की जा रही है. क्या रामटहल चौधरी इस ढलती उम्र में हथियार डालने का इरादा कर चुके हैं, या फिर तरकश में अभी और भी तीर है. सवाल यह भी है कि क्या रामटहल चौधरी अपने उन तीरों का इस्तेमाल सियासत की इन अनजान खिलाड़ी के साथ करना पसंद करेंगे या फिर सियासी दुश्मन की बेटी को अपनी बेटी मान भरे मन से ही सही जीत का आशीर्वाद देंगे.
काफी पुरानी है रामटहल चौधरी और सुबोधकांत की सियासी भिड़त
यहां यह याद रहे रांची के सियासी अखाड़े में रामटहल चौधरी और सुबोधकांत के बीच की सियासी भिड़त का इतिहास काफी पुराना है. रामटहल चौधरी ने इस सियासी अखाड़े में पांच बार सुबोधकांत को पटकनी देने का भारी भरमक रिकार्ड बनाया है. हालांकि इस बार ये दोनों दिग्गज एक ही सियासी छतरी के नीचे खड़े हैं. जहां सुबोधकांत ने अपनी पूरी जिंदगी कांग्रेस के नाम किया है, वहीं रामटहल की अभी-अभी कांग्रेस में इंट्री हुई है. उनके लिए कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति को समझना अभी बाकी है. जिस भाजपा में रामटहल चौधरी ने अपनी पूरी जवानी खपाई है, वह अटल-आडवाणी की भाजपा थी. जहां टिकटों के लिए पैरवी और जोड़-तोड़ की संस्कृति नहीं थी, बगैर किसी परैवी और पहुंच के टिकट कार्यकर्ताओं के हाथ में पहुंचता था. हालांकि पीएम मोदी की इंट्री के बाद भाजपा में भी काफी कुछ बदला है, और शायद रामटहल चौधरी के मन में इसकी पीड़ा भी है. भाजपा में हो रहे इस बदलाव को वह आत्मसात नहीं कर पायें, लेकिन अब उनके सामने कांग्रेसी संस्कृति को आत्मसात करने की चुनौती भी है. जीवन के इस बेला में वह कांग्रेस की इस संस्कृति को कितना आत्मसात करेंगे,यह एक जूदा सवाल है. खैर, कभी भाजपा के राम माने जाने इस कुर्मी दिग्गज को कांग्रेस की छतरी के नीचे खड़ा करने में सुबोधकांत सहाय की अहम भूमिका भी रही. जिस दिन कांग्रेस कार्यालय में रामटहल चौधरी को कांग्रेस का पट्टा पहनाया जा रहा था, उस वक्त भी सुबोधकांत ठीक बगल में खड़े मंद-मंद मुस्करा रहे थें. लेकिन लगता है कि रामटहल चौधरी उस मुस्कान का अर्थ समझने में देर कर बैठें, और अब उनके सामने एक गंभीर सियासी प्रश्न खड़ा हो गया है.
आसान नहीं है यशस्विनी की डगर
अब इसका काट क्या होगा? तरकश के कौन सा तीर बाहर निकलने वाला है, यह तो राम टहल चौधरी ही बेहतर जानते होंगे. लेकिन इतना तय है कि यशस्विनी सहाय के लिए भी यह सियासी डगर इतना आसान नहीं है. अभी यशस्विनी को सियासी बारीकियां समझनी है, उसकी टेढ़ी चालों के अनुरुप अपने आपको ढालने की चुनौती है, हालांकि खुशकिस्मती यह है कि उनके पिता सुबोधकांत इस टेढ़े-मेढ़े रास्ते से पुराने खिलाड़ी हैं. उन्होंने इस डगर को काफी लम्बा नापा है. लेकिन सवाल फिर से वही है कि जिस रांची संसदीय सीट पर 2009 के बाद सुबोधकांत की इंट्री पर ताला लगा है, क्या उस चुनौती को यशस्विनी पार पायेंगी. या फिर महज एक प्रशिक्षण का हिस्सा है? इस सवाल का जवाब तो आने वाले परिणाम से ही तय होगा. लेकिन इतना साफ है कि रांची संसदीय सीट से रामटहल चौधरी की विदाई के बाद टाईगर जयराम की ओर से मोर्चा संभाल रहे देवेन्द्र नाथ महतो के हिस्से वोटों की संख्या में कुछ इजाफा होने वाला है. कुर्मी मतदाताओं को, खासकर ग्रामीण इलाकों में, देवेन्द्र नाथ महतो में एक विकल्प नजर आ सकता है और यदि ऐसा होता है तो इसका भाजपा को कितना नुकसान होगा और यशस्विनी के अरमानों पर कितना पानी फिरेगा, यह भी देखने वाली बात होगी.
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