पटना(PATNA)- क्या सीएम नीतीश पर हमला और लालू परिवार के विरुद्ध केन्द्रीय एजेंसियों के रुख से भाजपा का चुनावी ग्राफ गिरता जा रहा है, क्या लालू परिवार के विरुद्ध सीबीआई और ईडी की गैर जरुरी आक्रमता से लालू यादव के आधार मतों को यह संदेश जा रहा कि यह भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष नहीं होकर सिर्फ और सिर्फ सामाजिक न्याय की ताकतों को कमजोर करने की भाजपा की साजिश है. क्या सीबीआई और ईडी के तमाम दावों को अब भाजपा का प्रोपगंडा माना जाने लगा है, और यह जमीन तक उतरता जा रहा है. क्या इस दावे में दम की है कि जैसे जैसे लालू परिवार को घेरने की कोशिश की जा रही है. उस परिवार के प्रति लोगों की सहानूभूति में इजाफा हो रहा है और कुल मिलाकर राजद के इस दावे को बल मिलता दिख रहा है कि यदि लालू परिवार भी भाजपा की पिछड़ा विरोधी और साम्प्रदायिक सोच के साथ खड़ी हो जाती, तो आज भी लालू परिवार सत्ता की मलाई काट रहा होता, ईडी सीबीआई और दूसरी एजेंसियों से दूर वह अमन-शांति की जिंदगी जी रहा होता. नारायण राणे, हेमंत विश्व सरमा, अजीत पवार और शुभेन्दु अधिकारी की तरह गंगा नहा गया होता.
अब लालू परिवार को लटकाने के बजाय मामले की लटकाने की रची गयी साजिश
दरअसल यह दावा इस लिए किया जा रहा है कि लैंड फोर जॉब मामले में अचानक से ईडी और सीबीआई के रुख बदले नजर आ रहे हैं. जिस लैंड फॉर जॉब मामले में सीबीआई की ओर चार्जशीट दायर कर दिया गया था, अब चार्ज फ्रेम करने की बारी थी, माना जा रहा था कि भोला यादव और दूसरे कई लोगों को सरकारी गवाह बनाया जा सकता है, लेकिन अचानक से सीबीआई का सूर बदल गया, उसके द्वारा लालू परिवार को लटकाने के बजाय मामले की लटकाने की कोशिश की जाने लगी. और आश्चर्यजनक रुप से पुरक चार्जशीट दायर करने के लिए समय की मांग की जाने लगी, और इसके लिए तर्क यह दिया गया कि लैंड फॉर जॉब मामले में पूरा जांच अभी सिर्फ बिहार तक ही सिमटा हुआ है, जबकि कई दूसरे जोन से भी नौकरी के बदले जमीन लेने के संकेत मिल रहे हैं.
यूपीए वन में रेल मंत्री थें लालू यादव
यहां बता दें कि लालू यादव वर्ष 2004 से 2009 के बीच यूपीए वन के शासन काल में रेलवे मंत्री थें, वर्ष 2014 में यूपीए दो की सरकार चली गयी और दिल्ली की गद्दी पर पीएम मोदी का अवतरण हुआ, इतने दिनों तक लैंड फॉर जॉब की कोई चर्चा नहीं हुई. लेकिन जैसे ही 2015 के विधान सभा चुनाव नीतीश और लालू एकजूट हुए और विधान सभा चुनाव में पीएम मोदी की धुंआधार रैली के बावजूद भाजपा 53 सीट पर अटक गयी, भारी फजीहत हुई, यह इस बात का सबूत था कि यदि बिहार की राजनीति में राजद और जदयू एक हो जाय तो भाजपा उसके आसपास भी कहीं नहीं ठहरता. भले ही उसके साथ पीएम मोदी भी खड़े हों, जिनका जलबा देश के कई दूसरे राज्यों में देखने को मिलता है. और दावा किया जाता है कि इसी के बाद लैंड फॉर जॉब का मामले की खोज की गयी.
छह वर्षों की जांच फिर भी खाली हाथ सीबीआई और ईडी
लेकिन छह वर्षों की जांच, दर्जनों छापेमारी और गिरफ्तारी के बावजूद अब भी सीबीआई के द्वारा जांच के लिए और भी समय की मांग किया जाना इस शंका को बल देता है कि कथित भ्रष्टाचार के विरुद्ध इस तथाकथित संघर्ष के पीछे कहानी कुछ और ही है. यह सब कुछ इतना सहज और स्वाभाविक नहीं है, जितना इसे दिखलाया जा रहा है. यही कारण है कि लालू समर्थकों का दावा है कि आज भी सीबीआई के पास कुछ नहीं है, और जो है उसे कोर्ट में सिद्घ करना बेहद मुश्किल है. इसलिए समय दर समय की मांग कर सिर्फ लालू यादव को घेरे रखने की रणनीति पर काम की जा रही है, ताकि लालू यादव की आवाज को दबाया जा सकें. क्योंकि जब तक लालू परिवार ईडी सीबीआई में उलझा रहेगा भाजपा के हिस्से अमन और शांति रहेगी.
भाजपा के लिए अपने कोर वोटरों में राजद जदयू की सेंघमारी
लेकिन इस बीच सीबीआई और ईडी के इस बदले सूर को एक दूसरे नजरीये से भी देखे जाने की कोशिश की जा रही है. दावा किया जा रहा कि हालिया दिनों में भाजपा की ओर से बिहार में अपनी राजनीतिक हैसियत का आकलन करवाया गया है, जिसमें यह बात निकल कर आयी है कि जितनी तेजी से सीबीआई और ईडी को दौड़ाया जा रहा है, लालू नीतीश का राजनीतिक ग्राफ उतना ही उछाल ले रहा है, और हालत यह है कि भाजपा के लिए अपने कोर वोटरों को भी संभालना मुश्किल हो रहा है, वह सवर्ण जाति जिसे भाजपा का आधार मत माना जाता है, पांच फीसदी तक राजद जदयू की ओर शिफ्ट कर गया है.
लालू नीतीश पर हमले के बजाय संगठन विस्तार पर जोर
यही कारण है कि भाजपा लालू नीतीश पर हमले करने के बजाय अब अपने संगठन विस्तार पर काम करना चाहती है, साथ ही लालू नीतीश पर सीधा हमला कर उनके समर्थकों को उनके पाले में खड़ा करने लिए मजबूर नहीं करना चाहती, कुल मिलाकर बिहार की राजनीति में आज के दिन भाजपा मुश्किल दौर से गुजर रही है, उसकी सांगठनिक हालत भी कमजोर है, प्रदेश भाजपा कई टुकडों में बिखरा पड़ा है और जिस तरीके से साम्राट चौधरी और हरि सहनी को आगे किया गया है, उसके सवर्ण मतदाताओं को नागवार गुजरा है, उन्हें इस बात का दर्द सताने लगा है कि जब संघर्ष का काल था, तब हम ध्वजवाहक बन कर सामने खड़े थें, और आज जब सत्ता का स्वाद चखने की बारी है तो पिछड़ों और अति पिछड़ों का कमान सौंपा जा रहा है. यदि पार्टी से लेकर सरकार में दलित पिछड़ों और अतिपिछड़ों की ही चलनी है तो जदयू राजद में क्या बुराई है? जिसका कोई सीधा जवाब आज के दिन भाजपा के पास नहीं है.