Ranchi-कर्नाटक की शानदार जीत के बाद पूरे देश में कांग्रेसी कार्यकर्ता उत्साह से लबरेज हैं. उनके अन्दर का लड़ाकापन एक बार फिर से अंगड़ाई लेने लगा है. उनके मृतप्राय सपने एक बार फिर से उड़ान लेने लगे हैं. कर्नाटक के बाद अब वह मध्यप्रदेश की कमान भाजपा से छीनने की तैयारियों में जुट गये हैं. छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी वे भाजपा को धूल चटाने के दावे करने लगे हैं, लेकिन इसी के साथ अब यह सवाल भी खड़ा हो गया है कि कर्नाटक की इस जीत का झारखंड की राजनीति पर क्या असर पड़ने वाला है. क्या कांग्रेस झारखंड में अपने आप को झामुमो की छाया से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र वजूद की लड़ाई लड़ेगी या फिर झाममो का बी टीम बन कर ही अपने आप को संतुष्ट करेगी.
राजनीतिक जमीन बेहद खस्ताहाल है
यदि राजनीतिक जमीन की बात करें तो उसकी हालत झारखंड में बेहद खस्ताहाल है, हालांकि आज के दिन भी उसके पास 15 विधायक हैं, जिसमें करीबन सभी सामाजिक समूहों की भागीदारी है, दलित आदिवासी से लेकर अल्पसंख्यक चेहरे उसके पास है. लेकिन सच्चाई यह भी है कि यह जीत उसे झामुमो का साथ मिलने से मिला है. यदि वह झामुमो से अलग होकर भाजपा झामुमो के समानान्तर राजनीतिक अखाड़े में कूदती है, तो वह इसकी पुनरावृति भी कर पायेगी या नहीं इसपर सवालिया निशान खड़ा है.
मजबूत सांगठनिक ढांचा का अभाव
यदि बात प्रदेश कांग्रेस संगठन की करें तो कहीं से भी कोई मजबूत सांगठनिक ढांचा नहीं दिखलाई देता, उपर से प्रदेश स्तर के नेताओं में सीएम हेमंत से अपनी नजदीकियां दिखाने की होड़ मची रहती है. और मजबूरी ऐसी की कांग्रेस के अन्दर से काफी लम्बे अर्से से एक और मंत्री पद की मांग दुहरायी जाती रही है, लेकिन इसे कोई खास तब्बजो खुद प्रदेश स्तर के नेताओं के द्वारा ही नहीं दिया जाता है. उनकी कोशिश हेमंत सरकार के कार्यकाल को किसी भी प्रकार पांच वर्ष पूरा करवाने की है.
आदिवासी-मूलवासी चेहरे का संकट
इसके साथ ही कांग्रेस के पास आदिवासी-मूलवासी चेहरे का संकट भी एक बड़ी समस्या है. पार्टी के अन्दर विक्षुब्धों की गतिविधियां तेज है, उनके निशाने पर खुद पार्टी अध्यक्ष राजेश ठाकुर है, जिनके बारे में खुद पार्टी कार्यकर्ताओँ का आकलन है कि उनकी राजनीतिक जमीन बेहद कमजोर है, विधान सभा तो दूर वह किसी पंचायत चुनाव में भी अपने प्रभाव का उपयोग कर जीत दिलाने की स्थिति में नहीं. दावा किया जाता है कि वह जिस सामाजिक समूह के आते हैं, उस पर पहले से भाजपा का प्रभाव है. यही कारण है कि पार्टी के अन्दर किसी मूलवासी आदिवासी को आगे करने की मांग की जाती रही है. अल्पसंख्यकों की नाराजगी भी अपनी जगह है. रामगढ़ उपचुनाव में मिली हार को भी इसी नजरिये से देखा जा रहा है.
कांग्रेस पर अगड़ों की पार्टी होने का ठप्पा है
अब इस हालत में यदि पार्टी झारखंड में अपने चेहरे को बदलाव नहीं करती है, जमीन स्तर पर संघर्ष का बिगुल नहीं फुंकती है, तो पार्टी को एक बार से उर्जावान बनाना और उसके कलेवर में बदलाव करना बेहद मुश्किल होने वाला है और इसके साथ ही पार्टी पर अगड़ों की पार्टी होने का जो ठप्पा लगा है, उससे आगे निकलना मुश्किल होगा. इसका अभिप्राय यह कदापी नहीं है कि उसे झामुमो से अलग राह पकड़ने की जरुरत है, जरुरत मात्र अपने संगठन में बदलाव कर अपने मुद्दे को आगे कर राजनीति की शुरुआत करने की है.