रांची(RANCHI)- 2024 का संग्राम जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा है, हर दल और गठबंधन अपने-अपने तुरुप के पतों की खोज में लगा चुका है. वह हर राजनीतिक पैंतरें को अपनाने की कोशिश की जा रही है, जो सामने वाले को चित कर सके.
लेकिन यहां सवाल दुमका के राजनीतिक अखाड़े की है, उस संथाल की है जिसे झामुमो का अभेद किला माना जाता है, हालांकि यह अभेद किला पहले भी धवस्त हो चुका है, वर्ष 1998 में इसी अभेद किले को ध्वस्त कर बाबूलाल ने झारखंड की राजनीति में अपने कद को आसमान पर पहुंचा दिया था. हालांकि इसके लिए बाबूलाल को लगातार 1991, 1996 के लोकसभा चुनाव में हार का स्वाद चखना पड़ा था. लेकिन आखिरकार 1998 में वह शिबू सोरेन जैसे विराट शख्सियत को पटकनी देने में कामयाब रहे थें, और इसके बाद ठीक 21 वर्षों के बाद एकबार फिर से वही कारनामा वर्तमान सांसद सुनील सोरेन ने कर दिखलाया.
कभी गुरुजी की उंगली थाम शुरु हुई थी सुनील सोरेन की राजनीति
यहां ध्यान रहे कि सुनील सोरेन की राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा कहीं और नहीं, इन्ही गुरुजी की देख रेख में संपन्न हुई थी. गुरुजी की कृपा दृष्टि से ही वह दो बार बार जामा से विधायक भी बने. लेकिन गुरुजी की उगंली पकड़ राजनीति का ककहरा सीखने वाले सुनील सोरेन ने दुर्गा सोरेन से मतभेद के बाद वर्ष 2004 में बाबूलाल की सह पर भाजपा का दामन थाम लिया. समय गुजरता गया, इस बीच भाजपा उन्हे दुमका के मैदान में गुरुजी के खिलाफ उतार अग्नि परीक्षा लेती रही, और बड़ी बात यह रही कि 2014 के मोदी लहर में भी गुरुजी ने अपने इस पूर्व शिष्य को करीबन 39 हजार मतों से पटकनी देकर यह साबित कर दिया कि दुमका मतलब झामुमो का किला. लेकिन वर्ष 2014 की हार के बाद भी भाजपा ने सुनील सोरेन पर भरोसा नहीं छोड़ा और एक बार फिर से 2019 में चुनावी अखाड़े में उतारने का जोखिम लिया और इस बात भाजपा का यह गुमनाम तीर चल गया और सुनील सोरेन ने गुरुजी को उनके ही किले में करीबन 37 हजार मतों से शिकस्त देने में कामयाबी हासिल कर ली.
दुमका से बाबूलाल को उतार कर चौंका सकती है भाजपा
साफ है कि सुनील सोरेन और बाबूलाल वह दो चहेरें है, जिसने चुनावी अखाड़े में गुरुजी को शिकस्त देने में कामयाबी हासिल की है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या 2024 में सुनील सोरेन ही भाजपा की तरफ से जंगे मैदान में होगें, या चेहरा बदल भाजपा यहां नया प्रयोग करेगी. हालांकि बाबूलाल को चतरा के मैदान से उतारे जाने की खूब चर्चा हो रही है. लेकिन इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा दुमका से सुनील के बजाय बाबूलाल को मैदान में उतार कर चौंकाने का काम करे. ताकि पिछले पांच सालों में सुनील सोरेन के प्रति लोगों में जो नाराजगी पैदा हुई है, उसे समेटा जा सके.
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि खुद गुरुजी का क्या होगा? क्या इस गिरते सेहत के बीच गुरुजी एक बार फिर से चुनावी अखाड़े का रुख करना पंसद करेंगे, और करेंगे भी तो उनकी सक्रियता कितनी होगी, हालांकि आज भी यह एक सच्चाई है कि गुरुजी का डंका आज भी बजता है, और उनके प्रति श्रदाभाव रखने वालों की संख्या आज भी कम नहीं हुई है, आज भी उनकी एक बोली पर लाखों की भीड़ जुट जाती है. लेकिन 2019 के चुनाव प्रचार के दौरान ही गुरुजी ने यह संकेत दे दिया था कि यह चुनाव उनकी लंबी राजनीतिक राजनीतिक यात्रा का विराम विन्दू होगा, हालांकि उसके बाद भी उनकी हार हो गयी. तब क्या यह माना जाये कि दुमका में जीत का परचम फहराने बाद ही गुरुजी के राजनीतिक सन्यास की औपचारिक घोषणा की जायेगी.
गुरुजी की उम्मीदवारी अपनी जगह, लेकिन झामुमो खेमा में कुछ नये नामों की भी चर्चा हो रही है, दावा किया जा रहा है कि दुर्गा सोरेन की राजनीतिक विरासत को जिंदा रखने के लिए सीता सोरेन या उनकी बेटी राजश्री सोरेन को आगे किया जा सकता है.यहां यह भी याद रहे कि दुर्गा सोरेन के बैनर तले राजश्री सोरेन सामाजिक गलियारों में अपनी सक्रियता दिखलाती रहती है, और कई बार तो खुद अपने चाचा के खिलाफ भी मुखर नजर आने लगती है, लेकिन बिते कुछ दिनों में इस खिलाफत में कमी आयी है, तब क्या यह माना जाय कि इस खिलाफत में कमी का मुख्य कारण दुमका की सीट पर राजश्री की उम्मीदवारी को स्वीकार कर लिया गया है, हालांकि ऐसा होता है तो दुमका का किला बचाने के लिए भाजपा को कठीन संघर्ष करना होगा, क्योंकि युवा राजश्री के सामने भाजपा के पुराने चेहरों को जनता के बीच टीक पाना मुश्किल होगा.