टीएनपी डेस्क(TNP DESK): देव उठनी एकादशी संपन्न हो चुका है. अब भगवान विष्णु अपने चार महिना के गहन निद्रा से जाग उठे हैं. अब शादी विवाह गृह प्रवेश जैसे शुभ कार्य शुरू हो गए हैं. नवंबर दिसंबर के समय काफी ज्यादा शादी विवाह संपत्र होता है. शादी के दौरान वर को भगवान विष्णु और वधु को माता लक्ष्मी का रूप मानकर विवाह संपत्र कराया जाता है. जिसमें कई तरह के रस्म निभाए जाते है. जिसमें कन्यादान सबसे बड़ा और महत्तवपूर्ण माना जाता है.
कन्यादान की परंपरा को आज भी निभाया जाता है
कन्यादान को महादान कहा जाता है इसको करने वाले पिता को अश्वमेघ यज्ञ के बराबर का पुण्य मिलता है. जिसमें कन्या का पिता वर के हाथों में अपनी बेटी का हाथ सौंप देता है, इसकी वजह से ही इसको कन्यादान कहा जाता है. कन्यादान के बारे में सबने सुना होगा, लेकिन इसके पीछे की वजह क्या है. यह बहुत लोगों को नहीं पता है, तो आज हम आपको कन्यादान से जुड़ें कई रोचक बातें बतायेंगे कि आखिर इसका महत्व क्या है.
पढ़ें क्या है कन्यादान का महत्व
पुरोहितों की मानें तो शादी के समय कन्या का पिता जब अपनी बेटी का हाथ वर के हाथ में सौंपता है तो उसे अश्वमेघ यज्ञ के बराबर का पुण्य मिलता है. कन्यादान करने से जीवन के सभी दान के बराबर का पुण्य मिलता है. अपनी बेटी का हाथ वर के हाथ में सौंपते समय पिता यह अश्वासन लेता है कि जिस तरह से उसने अब तक अपनी बेटी का ख्याल रखा और प्यार से खुश रखा. वैसे ही अब वर की जिम्मेदारी है कि अब पूरी उम्र उसकी बेटी को वह खुश रखे और संभाले. वहीं वर भी कन्या के पिता से वादा करता है कि वह हर हाल में उसकी बेटी का ख्याल रखेगा, अपने कुल वंश में परंपरा की वृद्धि के लिए वंश के उद्धार के लिए कन्या के पिता से कन्या दान का दान मांगता है.
पिता के आलावा ये लोग भी कर सकते है कन्यादान
वैसे तो कन्यादान पिता का पहला हक होता है, लेकिन अगर किसी कन्या का पिता नहीं है या किसी कारणवश उस वक्त मौजुद नहीं है तो फिर हमारी परंपरा में यह सौभाग्य चाचा, बड़े पापा या भाई को भी दिया गया, यानी ये लोग भी पिता की गैर मौजूदगी में कन्यादान कर सकते हैं. उन्हें भी पिता के बराबर फल की प्राप्ति होती है, लेकिन दान के कुछ नियम होते हैं. कन्यादान करने से पहले उसे इन लोगों को पूरा करना पड़ता है. इसके बाद ही ये लोग कन्यादान कर सकते है.
इस वजह से बेटी के ससुराल में नहीं करना चाहिए भोजन
कई बार आप लोगों ने सुना होगा कि अपनी बेटी के ससुराल में पिता और अन्न जल ग्रहण नहीं करता है. इसके पीछे भी पुरानी परंपरा छुपी हुई है. जब भी पिता अपनी बेटी के ससुराल जाता है तो वह अन्न जल ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि धार्मिक शास्त्र में यह लिखा गया है कि जो दान दे दिया गया है उसका ग्रहण दोबारा आप नहीं कर सकते हैं. यही वजह है कि पंडित को दिया गया दान भी लोग दोबारा नहीं लेते हैं. अगर कोई लेता है तो वह पाप के समान होता है. उसी तरह से बेटी के यहां भी भोजन करना पाप माना जाता है.