Ranchi- जिस ठाकुर का कुंआ पर बिहार की पूरी राजनीति उलटबांसी करती नजर आ रही है, वर्षों से मुर्छाएं तीर नये साज-सज्जा के साथ कमान से निकाले जा रहे हैं, जंग लगी तलवारों में धार देने की कोशिश की जा रही है, कुछ लोगों के लिए अचानक से यह वक्त राजपूताना राज्य के लिए मुफीद नजर आने लगा है और इस सबसे बेखर होने का स्वांग रचते राजद सुप्रीमो लालू यादव खुद अपनी ही पार्टी के विधायक को अपना शक्ल और अक्ल देखने की नसीहत पिला रहे हैं.
इस विवाद के साथ बिहार के बिगड़ते सियासी हालात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि स्वनामधन्य चेतन्य आनन्द के लिए राबड़ी आवास पर नो ईंट्री की बोर्ड टंग चुकी है और घंटों इंतजार के बाद उन्हे बैरन वापस लौटना पड़ा है.
तलवार की धार के बजाय कविता का भाव समझने की नसीहत
लेकिन इन सबके बीच मनोज झा के लिए राहत की एक बड़ी खबर झारखंड से आयी है, जहां ठाकुर का कुंआ के पाठ के बाद कई ठाकुर मनोज झा का जीभ खींचने की बात कर रहे हैं, वहीं झारखंड कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने आलोचकों को तलवार की धार के बजाय कविता का भाव समझने की नसीहत दिया है, उन्होंने दावा किया है कि कुछ लोग अपने सियासी फायदे के लिए बेवजह इस पाठ को सियासी मुद्दा बना रहे हैं. कविता का भाव समझने की बजाय उसके अन्दर राजनीति घुसेड़ी जा रही है, और जबरन मनमाने अर्थ निकाले जा रहे हैं.
ध्यान रहे कि राजद सांसद मनोज झा के द्वारा ओमप्रकाश वाल्मिकी की कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ का संसद में पाठ पर विवादों के बीच लालू यादव ने आनन्द मोहन और उनके बेटे को कम अक्ल बता कर राजद का स्टैंड का साफ कर दिया है. इसके साथ ही लालू यादव ने मनोज झा को विद्वान और चिंतक की उपाधि से भी सुशोभित किया है.
जदयू भी खड़ा हुआ मनोज झा के बयान के साथ
इधर जदयू ने भी मनोज झा के बयान को जाति विशेष के नजरिये से देखने से परहेज करने की सलाह दी है. जदयू राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने दावा किया है कि मनोज झा का आशय़ महज वंचित समाज की सामाजिक-राजनीतिक आकांक्षाओं को सामने लाना था. इन तमाम विवादों के बीच राजद प्रवक्ता और पूर्व विधायक ऋषि मिश्रा ने कहा है कि मनोज झा को ना सिर्फ भाजपा नेताओं से खतरा है बल्कि जदयू-राजद नेताओं से भी उनकी जान को खतरा बना हुआ है, इस हालत में यह गृह मंत्रालय की जिम्मेवारी है कि कि मनोज झा को (Y) श्रेणी की सुरक्षा प्रदान करे.
किस बयान पर मचा घमासान
चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की, बाजरा खेत का, खेत ठाकुर का।
बैल ठाकुर का, हल ठाकुर का, हल की मूठ पर हथेली अपनी, फ़सल ठाकुर की।
कुआं ठाकुर का, पानी ठाकुर का, खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के, फिर अपना क्या?
गाँव? शहर? देश?
वर्ष 1981 में जब ओमप्रकाश वाल्मिकी इन पंक्तियों को लिख रहें होंगे, तो निश्चित रुप से उनके जेहन में आजाद भारत की सामाजिक गुलामी का दंश सामने रहा होगा, इस बात की पीड़ा भी रही होगी कि आजादी के तीन दशकों के बाद भी यह आजादी वंचित तबकों तक नहीं पहुंच पायी, सामाजिक न्याय और समाजवाद के तमाम शोर के बीच आजादी का यह सपना उंची-उंची अट्टालिकाओं में कैद हो कर रह गया. एक व्यक्ति एक वोट का हथियार भी इन सामाजिक दीवारों को तोड़ नहीं पाया और उच्च वर्णीय-वर्गीय प्रभूता आज भी हमारी सामाजिक जीवन में अट्हास करता है. सामाजिक आर्थिक विकास के हर पैमाने पर आज भी दलित, पिछड़े और आदिवासी निचले पायदान पर खड़े हैं.
राहुल गांधी ने दिखलाया आईना
हालांकि कुछ देर के लिए ओम प्रकाश वाल्मिकी की कविता के सामाजिक यथार्थ को अलग भी रख दें, तो भी जिन आंकड़ों के साथ महिला आरक्षण पर अपनी बात रखते हुए राहुल गांधी ने इस बात का दावा किया था कि मोदी सरकार में जिन 90 कैबिनेट सचिवों के द्वारा देश को चलाया जा रहा है, उसमें से महज तीन ओबीसी जातियों से आते हैं. बेहद चौंकाने वाला आंकड़ा है, इस आंकड़े से साफ है कि आजादी के 8वें दशक में भी हम सामाजिक रुप से समानता के फर्श पर नहीं खड़ें है, हमारी जमीन आज भी उंची-नीची है, हमारे सामाजिक जीवन में आज भी उस सामाजिक न्याय का प्रवेश नहीं हुआ है. जिसकी चित्कार ओमप्रकाश वाल्मिकी की कविताओं में सुनाई पड़ती है.
ओमप्रकाश वाल्मिकी की मौत के दो दशकों के बाद भारतीय संसद में गुंजा ठाकुर का कुंआ
ओमप्रकाश वाल्मिकी के देहांत के दो दशक के बाद राज्यसभा सांसद मनोज झा ने जब उनकी प्रसिद्ध रचना ‘ठाकुर का कुआं” का संसद में पाठ किया होगा, तब शायद उनके अन्दर भी यही पीड़ा होगी और इसी सामाजिक विभेद का दर्द भी होगा.
यहां याद रहे कि आजादी के 75 साल में दलितों और पिछड़ों की जीवन में भले ही क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया हो. लेकिन बदलाव की चिंगारी तो जरुर दिख रही है. यह बदलाव सिर्फ दलित पिछड़ों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि समाज का वह तबका जिस पर आज तक शोषण का आरोप लगता रहा है. बदलाव की आवाज वहां से भी आ रही है, क्रांतिकारी कवि गोरख पांडे हो या सुदामा पांडे या फिर जन कवि पाश या फिर बाबा नागार्जुन सामाजिक यथार्थ को आईना दिखलाते ये नायक को कथित उच्ची जातियों से ही तो आते थें, लेकिन उनकी पूरी वैचारिकी तो दलित पिछड़ें और वंचित तबकों के पक्ष में खड़ी थी और आज खुद मनोज झा भी उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए दिख रहे हैं.
चंद चेहरों से नहीं बदलती सामाजिक हकीकत
लेकिन सवाल यहां यह है कि इस सामाजिक दीवारों में टूटन आयी या फिर मुट्ठी भर लोगों में इस सामाजिक चेतना का विकास हुआ. निश्चित रुप से गोरख पांडे, सुदामा पांडे, पाश और नागार्जून उच्च वर्गीय समाज का हिस्सा होकर भी समानता का संदेश फैला रहे हों. लेकिन ताजा विवाद से यह भी परिलक्षित होता है कि कुछ एक व्यक्तियों के सामाजिक नजरिये में बदलाव तो जरुर आया, लेकिन समाज नहीं बदला, आज भी उस समाज में जातीय श्रेष्ठता का अंहकार है. उसकी ही बानगी मनोज झा की कविता के पुर्नपाठ के बाद सामने आ रही है. कहीं राख से उनकी जीभ खिंचने की धमकी दी जा रही है, तो कहीं इस बात का दावा किया जा रहा है कि काश! उस दिन मैं भी संसद में रहता तो मनोज झा की हेकड़ी निकाल देता.
बिहार में क्षत्रीय ब्राह्मण विवाद तेज
लेकिन उससे भी दुखद पक्ष यह है कि मनोज झा के इस पाठ पर दलितों पिछड़ों की सामाजिक स्थिति पर नया विमर्श शुरु होने के बजाय बिहार में क्षत्रिय ब्राह्मण विवाद गहराते नजर आने लगा है. राजपूत जाति से आने वाले कुछ नेताओं के द्वारा मनोज झा के बहाने ब्राह्मण जाति को अपना अंहकार मिटाने की सलाह वाची जा रही है. हालांकि यह वही मनोज झा हैं, जिन्होंने पहली बार भारतीय संसद में रामासामी पेरियार की सच्ची रामायण के कुछ अंशों का पाठ कर ब्राह्मणवादी वर्चस्व पर सवाल खड़ा किया गया था. शायद यह पहली बार था कि किसी ने भारतीय संसद में सच्ची रामायण के अंशों को उधृत करने का दुस्साहस किया था, जिसकी हिम्मत खुद ओबीसी और दलित समाज से आने वाले सांसद भी नहीं कर पा रहे थें.
अम्बेडकरवारी विमर्श के प्रखर वक्ता मनोज झा
कहने का अभिप्राय यह है कि मनोज झा भले ही ब्राह्मण जाति से आते हों. लेकिन सत्य यह है कि आज के दिन वह भारतीय संसद में अम्बेडकरवादी विचारधारा के सबसे प्रखर प्रवक्ता है. जिस प्रकार उनके द्वारा दलित विमर्श के मुद्दों को उठाया जाता है. कई बार वह मान्यवार कांशीराम की भाव चेतना की याद दिला जाता है. मनोज झा को ब्राह्मण जाति का प्रतिनिधि मान कर उनके बहाने ब्राह्रमण जाति को कटघरे में खड़ा करना, और मनोज झा को किसी जाति विशेष का विरोधी घोषित करना बेहद दुखद है.
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