रांची(RANCHI): लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद अब नई सरकार का गठन हो गया. लेकिन झारखंड की कई ऐसी सीट है जहां से हार इंडी गठबंधन के लिए एक सबक से कम नहीं है. आखिर जीतने वाली सीट कैसे हाथ से चली गई. इसमें सबसे ज्यादा चर्चा चतरा लोकसभा सीट की है. कभी राजद का गढ़ माना जाता था. बीच में भाजपा का दबदबा कायम हुआ. लेकिन फिर 2024 के लोकसभा चुनाव में एक माहौल चतरा में देखने को मिला. जिसमें भाजपा का अच्छा खासा विरोध स्थानीय प्रत्याशी की मांग को लेकर हुआ. बावजूद इस सीट को जीतने में कांग्रेस कामयाब नहीं हो सकी. भाजपा के कालीचरण सिंह के हाथों दो लाख 20 हजार से अधिक वोट से मात खानी पड़ी है.
चुनाव में कांग्रेस सुस्त दिखी
चतरा लोकसभा की बात करें इस सीट पर इंडी गठबंधन चुनाव मैदान में थी. गठबंधन ने कांग्रेस के केएन त्रिपाठी को चुनाव मैदान में उतारा था. के एन त्रिपाठी के साथ लोगों का हुजूम भी साथ चल रहा था. लोग बदलाव के मूड में थे. बावजूद आखरी समय में पूरी बाजी ही उलटी पड़ गई. इसके पीछे कई वजह है. कांग्रेस ने इस सीट पर प्रत्याशी के चयन में देरी कर दी.जबकि भाजपा जनता के मूड को पढ़ते हुए स्थानीय उम्मीदवार को मैदान में उतार दिया. इस सीट पर प्रत्याशी के चयन से लेकर पूरे प्रचार में कांग्रेस ने देरी की है. जिसका खामियाजा उठाना पड़ा है.पूरे चुनाव में ऐसा लगा की कांग्रेस को चुनाव से दूर दूर तक कोई लेना देना ही नहीं है.
कोई भी प्रदेश के नेता चुनाव में नहीं दिखे
अगर देखे तो सभी लोकसभा सीट पर कांग्रेस और गठबंधन के कई बड़े नेता और प्रदेश के नेता खूब चुनावी सभा कर रहे थे. लेकिन चतरा एक मात्र ऐसा लोकसभा था जहां किसी भी प्रदेश के नेता ने अलग से कैम्प नहीं किया. एक बार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मलिकार्जुन खरगे ने चुनावी सभा को सभा को संबोधित कर के एन त्रिपाठी के पक्ष में प्रचार किया था.इस दौरान मंच पर झामुमो नेत्री कल्पना सोरेन के अलावा प्रदेश के नेता भी मौजूद दिखे थे. लेकिन इसके बाद किसी भी नेता ने कोई सभा को संबोधित नहीं किया है.
गठबंधन में ताल मेल की कमी
के एन त्रिपाठी की हार पर चतरा के सीनियर पत्रकार संतोष कुमार बताते है कि इस चुनाव में गठबंधन के नेताओं के बीच ताल मेल नहीं देखा गया.ताल मेल की भी हार की एक वजह हुई है.चतरा लोकसभा के चतरा विधानसभा को राजद का गढ़ माना जाता है. इस सीट पर राजद कोटे से जीत कर राज्य सरकार में मंत्री भी है. बावजूद चतरा में ही कांग्रेस बड़े मार्जिन से पीछे हुई. चतरा विधानसभा में भाजपा को 143867 वोट मिले जबकि कांग्रेस 76022 ही खाते में आसके.इससे साफ है कि राजद के नेताओं ने भी यहाँ कांग्रेस को वोट दिलाने में पीछे रह गए है.
अरुण सिंह को टिकट मिलता तो परिणाम बदल सकते थे
इस सीट से कभी राजद के नागमणि जीत कर केंद्र में मंत्री भी बने थे.1999 के लोकसभा चुनाव में राजद का झंडा बुलंद कर जीत का परचम लहराया था. इसके बाद फिर 2004 में राजद ने प्रत्याशी बदल दिया धीरेन्द्र अग्रवाल को मैदान में उतारा. जनता ने धीरेन्द्र को को वोट देकर सदन भेजने का काम किया.इस तीन जीत से साफ हो गया की राजद के नाम पर इस सीट पर जीत मिलती है. अगर बात चतरा विधानसभा की करें तो यहाँ से दो बार राजद जीत चुकी है. 2009 में जनार्दन पासवान और 2019 में सत्यानंद भोक्ता राजद के चुनाव चिन्ह पर जीत चुके है.अगर चतरा के रण में राजद के अरुण सिंह को मौका दिया जाता तो भी बाजी पलट सकती है.इस सीट पर यादव के साथ साथ राजपूत समाज की बड़ी आबादी है.लेकिन कहीं न कहीं कांग्रेस जानबुझ कर इस सीट को हाथ से जाने दिया है.
चुनाव के दिन मिस मैनेजमेंट
दूसरे पॉइंट पर बताते है कि कांग्रेस पूरे चुनाव में कही नहीं दिखी है. जरूर कांग्रेस का झंडा उठा कर के एन त्रिपाठी और उनके समर्थक डटे हुए थे.यही कारण है कि जब मतदान हो रहा था तो अधिकतर बूथ पर कांग्रेस के एजेंट भी नहीं दिख रहे थे.दूसरी ओर चुनाव प्रचार की बात करें तो झारखंड प्रदेश अध्यक्ष से लेकर मंत्री ने एक भी चुनावी सभा को संबोधित नहीं किया है.इसके अलावा मलिकार्जुन खरगे के बाद किसी भी केन्द्रीय नेता का कार्यक्रम इस सीट पर प्रदेश नेतृत्व ने तय नहीं किया है.जिसका खामियाजा कांग्रेस के हाथ हार लगी है. पूरे चुनाव से कांग्रेस के प्रदेश नेताओं के सक्रिय नहीं होने का कारण यह भी हो सकता है कि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर और भाजपा के प्रत्याशी कालीचरण सिंह के बीच दूर के संबंध है. शायद यही वजह है कि झारखंड प्रदेश अध्यक्ष ने खुद तो कोई सभा नहीं की बल्कि किसी बड़े नेता या केन्द्रीय नेताओं के सभा करने की रणनीति भी नहीं बनाया.
बाहरी भीतरी का मुद्दा बना हार का वजह
इसके अलावा जब हमने लातेहार के स्थानीय पत्रकार मनोज कुमार से बात की तो उन्होंने बताया कि चुनाव हारने के पीछे कई वजह है. अगर सबसे पहले देखे तो चतरा में कोई भी कांग्रेस के स्थानीय नेता से लेकर प्रदेश के नेता सक्रिय नहीं दिखे है. यहाँ तक की जिला अध्यक्ष भी पूरे चुनाव से किनारा बनाते दिखे है. दूसरा कारण यह भी है कि चतरा लोकसभा सीट पर बाहरी भीतरी का मुद्दा जनता के बीच था. यही कारण है कि दो बार के सांसद सुनील सिंह का टिकट काट दिया गया. लेकिन कांग्रेस इस पत्ते के काट को नहीं खोज सकी.
अगर अब के एन त्रिपाठी के सियासी सफर पर नजर डाले तो चतरा के लिए कोई नया चेहरा नहीं है.चतरा से सटे डाल्टनगंज विधानसभा से जीत कर मंत्री रह चुके है. मंत्री रहते के एन त्रिपाठी का फोकस चतरा पर भी विशेष कर था. यहाँ कई बड़ी योजनाओं को धरातल पर लाने का काम भी किया था.यही कारण है कि 353597 वोट जनता दे दिया है. अगर संगठन और गठबंधन थोड़ा मेहनत इस सीट पर करती तो परिणाम कुछ और हो सकता था.
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