रांची(RANCHI): झारखंड की धरती जंगलों और पहाड़ों की धरती है. इन जंगल और पहाड़ों में कई इतिहास छिपे हुए हैं. इन इतिहास के बारे में कुछ लोग तो जानते होंगे, मगर ज्यादातर लोग इस इतिहास से अनजान हैं. राजधानी रांची से 75 किलोमीटर दूर खूंटी जिले के अड़की प्रखंड के सुदूरवर्ती पहाड़ी में ऐसा ही एक इतिहास मौजूद है, जिसके बारे में वहां के रहने वाले आम लोग तक अनजान हैं. हम जिस स्थान की बात कर रहे हैं, उसे डोम्बारी बुरु के नाम से जाना जाता है. डोम्बारी बुरु झारखंड की शौर्य गाथा का जीता-जागता इतिहास है. ये वो जगह है जो हमें भगवान बिरसा मुंडा के उलगुलान की याद दिलाता है. ये वो जगह है जो हमें अंग्रेजों की बर्बरता की याद दिलाता है. इसी जगह पर अंग्रेज आदिवासियों पर जुल्म और अत्याचार करते थे, और इसी जगह पर आदिवासियों ने भगवान बिरसा के नेतृत्व में ऐसी लड़ाई लड़ी कि वो हमेशा के लिए अमर हो गए.
अंग्रेजों के अत्याचार के बीच हुई उलगुलान की शुरुआत
वह दौर 1898 का था. जब अंग्रेजी हुकूमत आदिवासियों पर अत्याचार कर रही थी. अंग्रेजों का अत्याचार बढ़ता जा रहा था. लोग इससे काफी परेशान थे. लेकिन कोई भी अंग्रेजी हुकूमत के आगे सिर उठाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था. अंग्रेजों की इस अत्याचार के विरुद्ध तब एक शख्स ने लोगों को एकजुट करने की ठानी. उनका नाम था बिरसा मुंडा. बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को गोलबंद करना शुरू कर दिया. बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ छोटानागपुर से आंदोलन की शुरुआत शुरू हुई. लोगों को एक सूत्र में बांधते हुए बिरसा मुंडा अपने गांव पहुंचे. भगवान बिरसा ने गांव के लोगों को एकजुट करने और अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति बनाने के लिए एक बैठक रखी. बैठक की जगह थी डोम्बारी. डोम्बारी बुरु कई पहाड़ो के पार स्थित था. ऐसे में भगवान बिरसा इसे बैठक के लिए काफी सुरक्षित मान रहे थे. 9 जनवरी 1899 को बैठक हुई. मगर, इस बैठक की जानकारी किसी ने अंग्रेजों को दे दी.
अचानक अंग्रेजों ने गोलियां बरसानी कर दी शुरू
तभी बैठक के दौरान अंग्रेजी हुकूमत के जवानों ने चारों ओर से जंगल और पहाड़ी को घेर लिया और गोलियां बरसानी शुरू कर दी. इस अचानक हुए हमले से सभी डरे नहीं. बल्कि उन्होंने अंग्रेजों का सामना करने का फैसला किया. जहां अग्रेजो के पास उस वक्त के आधुनिक हथियार थे तो बिरसा मुंडा और उनके साथियों के पास तीर और धनुष था. बिरसा मुंडा ने भी अंग्रेजों का सामना किया. लेकिन बताया जाता है कि इस हमले में चार सौ से अधिक आदिवासी शहीद हो गए. डोम्बारी बुरु की पहाड़ी आदिवासियों के खून से लाल हो गई. अंग्रेजों ने भले ही उस दिन जंग जीत लिया, लेकिन बिरसा मुंडा ने उसी दिन से उलगुलान की शुरूआत कर दी. इसी जगह से “अबुआ राज अबुआ दिशोम” का नारा दिया गया. इस नारे ने पुरे झारखंड के लोगों को एक सूत्र में बांध दिया. इसी जगह से “जल जंगल जमीन हमारा है” और “अब गुलामी की जंजीर हमें नहीं रोक सकती” जैसे नारे भी दिए गए थे.
इन वीरों की कहानी किताबों से गायब
इस इतिहास से हर झारखंड वासी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. मगर, इन वीरों की गाथा हमारे किताबों से गायब है. आम तौर पर यह इतिहास किताबों में नही पढ़ाया जाता, जबकि आजादी की लड़ाई छेड़ने वाले झारखंड के पहले योद्धा भगवान बिरसा मुंडा थे. बाहर तो छोड़िए झारखंड के लोग भी डोम्बारी के बारे में ज्यादातर नहीं जानते. लेकिन, यह वह सच्चाई है जिसने झारखंड में उलगुलान की शुरुआत की थी. इस घटना के बाद भी बिरसा मुंडा और उनके साथियों ने हिम्मत नहीं हारी. अपने साथियों की शहादत से लोगों को गम था, लेकिन इस गम को कहीं ना कहीं उन्होंने अपनी वीरता में बदल लिया और अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई को और तेज कर दी. बिरसा मुंडा और उनके साथियों ने तीर धनुष से ही अंग्रेजों के कई बार दांत खट्टे कर दिये. लेकिन अफसोस की उनके शहादत की कहानियां कहीं भी किताबो में नही मिलती. शहीदों की याद में डोम्बारी बुरु में एक स्मारक स्तंभ भी बना हुआ है. बताया जाता है कि यह स्तंभ उस वक्त बिरसा मुंडा और उनके साथियों ने बनाया था.
रिपोर्ट: समीर हुसैन, रांची
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