पटना(PATNA): गणतंत्र दिवस के तीन दिन पहले मोदी सरकार ने एक बड़ा दांव खेला. जिसके बारे में किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मोदी सरकार ने सामाजिक न्याय के मसीहा और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का फैसला किया है. इस फैसले ने सबको अचंभित कर दिया है. क्योंकि आज कर्पूरी ठाकुर का आज जन्म शताब्दी है. 100वें जयंती से कुछ घंटे पहले केंद्र सरकार ने मरणोपरांत कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से सम्मानित करने के फैसले के बाद बिहार की सियासत में खलबली मच गई है. बिहार में नीतीश सरकार ने पहले ही कर्पूरी ठाकुर के 100वें जयंती पर कार्यक्रम तय रखी थी. अब भारत रत्न की घोषणा से कार्यक्रम में चार चांद लग गया. हालांकि, क्रेडिट लेने की अभी होड़ मची हुई है. सभी पार्टियां अपने-अपने तरीके से क्रेडिट ले रही है. लेकिन बड़ी बात यह है कि कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न मिले, इसकी मांग जदयू की वर्षों पुरानी है. जदयू ने कई बार कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की मांग की थी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी अपने कार्यक्रम में कई बार मांग कर चुके थे कि बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न मिलना चाहिए. अब नीतीश कुमार की मांग को केंद्र सरकार ने मान लिया और भारत रत्न देने की घोषणा भी कर दी.
पहले क्यों नहीं मिला कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न
दो महीने बाद देश में लोकसभा चुनाव होने वाला है. चुनाव से पहले मोदी सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर बिहार में बड़ा दांव खेल कर कमंडल के साथ मंडल में भी सेंध लगाने की कोशिश की है. चुनाव से पहले दांव खेलकर एक साथ कई पर निशाना साधा है. जिसका फायदा आने वाले चुनाव में बीजेपी को मिल सकती है. चुकी बिहार में इससे पहले जनता के सामने जाने के लिए कोई मुद्दा भी नहीं था, जो अब मोदी सरकार ने दे दिया है. अब सवाल उठता है कि कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न मिले, ये मांग वर्षों पहले की थी. तो पहले क्यों नहीं दिया गया? क्या बीजेपी सही समय पर मास्टर स्ट्रोक खेलने के लिए प्रतीक्षा कर रही थी?
कमंडल के बाद मंडल पर दांव, बिहार की राजनीति में हो गया बड़ा खेला
कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित करने के फैसले से केंद्र सरकार ने बिहार में पिछले 30 साल से पिछड़े और अति पिछड़ों की यानी मंडल की राजनीति करने वाले आरजेडी प्रमुख लालू यादव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने जबरदस्त चुनौती पेश कर दी है. जिस तरीके से प्रधानमंत्री मोदी ने दो दिनों के अंदर बैक टू बैक कमंडल और मंडल की राजनीति की है, उससे बिहार की राजनीति में जबरदस्त हलचल है.
प्रधानमंत्री मोदी ने कैसे दो दिनों के अंदर कमंडल और मंडल की राजनीति करके अपने विरोधियों को नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है. यह चर्चा का विषय बन गया है. दरअसल, 22 जनवरी को अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर का उद्घाटन और प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में जिस तरीके से प्रधानमंत्री मोदी ने सभी नियमों का पालन करते हुए धार्मिक अनुष्ठान किए, उसके जरिए कमंडल यानी अगड़ी जातियों को साधने की रणनीति, जनभावना को अपने पक्ष में करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.
किसके साथ है बिहार का ओबीसी
बिहार के ओबीसी वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा अब तक लालू यादव और नीतीश कुमार की पार्टियों के ही साथ रहा है. बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े आने, आरक्षण का दायरा बढ़ाए जाने के नीतीश के दांव से ऐसी चर्चा शुरू हो गई थी कि इसका फायदा महागठबंधन को 2024 के चुनाव में मिल सकता है. मगर कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने के एलान से नीतीश और लालू के मंडल वोट बैंक को साधने की कोशिश की हवा निकलती नजर आ रही है.
कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के वंचितों का बढ़ाया मनोबल
मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के वंचितों के हक में न सिर्फ काम किया, बल्कि उनका मनोबल भी बढ़ाया, जिसकी वजह से दलित-पिछड़े राजनीति में ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में आगे बढ़े हैं. उन्होंने पिछड़ों को 26 फीसदी आरक्षण भी देना का काम किया, जो कि देश में पहली बार बिहार में लागू किया गया था.
कर्पूरी ठाकुर का समस्तीपुर के पितौझिया गांव में हुआ था जन्म
कर्पूरी ठाकुर का जन्म समस्तीपुर जिले के पितौझिया गांव में हुआ था. पटना से 1940 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की और स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. यह वह दौर था जब बिहार कई तरह के आंदोलनों का केंद्र हुआ करता था. स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में किसानों का मुक्ति संघर्ष चल रहा था तो उसी दौर में पिछड़े वर्ग के लिए काम करने वाला त्रिवेणी संघ भी सक्रिय था. इसके अलावा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी ने भी बिहार में सक्रियता बढ़ा दी थी. इसके बावजूद कर्पूरी ठाकुर ने आचार्य नरेंद्र देव के साथ चलना पसंद किया.
1942 में गांधी के असहयोग आंदोलन में लिये थे हिस्सा
कर्पूरी ठाकुर ने समाजवाद का रास्ता चुना और 1942 में गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया. इसके चलते उन्हें जेल में भी रहना पड़ा. साल 1945 में जेल से बाहर आने के बाद कर्पूरी ठाकुर धीरे-धीरे समाजवादी आंदोलन का चेहरा बन गए, जिसका मकसद अंग्रेजों से आजादी के साथ-साथ समाज के भीतर पनपे जातीय व सामाजिक भेदभाव को दूर करने का था ताकि दलित, पिछड़े और वंचित को भी एक सम्मान की जिंदगी जीने का हक मिल सके.
लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरु थे कर्पूरी ठाकुर
कर्पूरी ठाकुर लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरु थे. इन दोनों नेताओं ने जनता पार्टी के दौर में कर्पूरी ठाकुर की उंगली पकड़कर सियासत के गुर सीखें है. इसीलिए लालू यादव ने जब सत्ता की कमान संभाली तो कर्पूरी ठाकुर के कामों को ही आगे बढ़ाने का काम किया. दलित और पिछड़ों के हक में कई काम किए. 17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने के चलते कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया था, लेकिन उनका सामाजिक न्याय का नारा आज भी बिहार में बुलंद है.
रिपोर्ट: संजीव ठाकुर
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