Ranchi-चतरा और धनबाद संसदीय क्षेत्र से भाजपा उम्मीदवारों के एलान के साथ ही झारखंड में क्षत्रिय समाज के बीच से आक्रोश और असंतोष की खबर आ रही है. क्षत्रिय समाज आरोप है कि होली से ठीक पहले चतरा-धनबाद से सुनिल सिंह और पीएन सिंह का पत्ता साफ कर भाजपा ने राजपूत जाति की होली को बदरंग कर दिया है. भाजपा के इस रवैये से साफ है कि झारखंड की सत्ता के लिए अब उसे राजपूतों की जरुरत नहीं है. सुनिल सिंह और पीएन सिंह दोनों ही अच्छा प्रर्दशन कर रहे थें, पीएन सिंह और सुनिल सिंह दोनों ही हर बार अपने जीत के फासले को और भी बड़ा बना रहे थें. वर्ष 2014 में पीएन सिंह ने कांग्रेस के अजय कुमार दुबे को करीबन तीन लाख मतों से धूल चटाया था, वहीं 2019 में क्रीति आजाद को करीबन पांच लाख मतों से शिकस्त दिया. यह आंकड़े ही इस बात के गवाह हैं कि पीएन सिंह लगातार अपने परफॉर्मेंस में सुधार कर रहे थें. ठीक यही हालत सुनिल सिंह की थी. सुनिल सिंह ने 2014 में कांग्रेस के धीरज साहू को करीबन एक लाख 80 हजार मतों से पराजित किया था, जबकि 2019 में मनोज यादव को करीबन चार लाख मतों से पराजित किया. बावजूद इसके दोनों का पत्ता साफ कर भाजपा ने अपनी मंशा साफ कर दी. खबर है कि 29 मार्च को राजपूत समाज एक बड़ी बैठक करने जा रही है. इस बैठक में आगामी लोकसभा चुनाव में राजपूत जाति की भूमिका क्या होगी और राजपूत जाति का वोट किधर जायेगा, इस पर फैसला लिया जायेगा.
सात फीसदी आबादी का दावा
क्षत्रिय समाज का दावा है कि झारखंड में उसकी आबादी करीबन सात फीसदी है और यह समाज भाजपा को कोर वोटर रहा है, बावजूद इसके प्रतिनिधित्व शून्य किया जाना, यह दर्शाता है कि भाजपा में राजपूतों का सियासी भविष्य क्या है? हालांकि सात फीसदी का यह दावा कितना सही है. इसका अभी कोई वैज्ञानिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. क्योंकि अंतिम जातीय जनगणना 1931 में हुई थी, और एक आकलन के अनुसार उस वक्त वर्तमान झारखंड के इस हिस्से में राजपूत जाति की आबादी करीबन एक से दो फीसदी के आसपास ही थी, लेकिन आजादी के बाद इस हिस्से में कई बड़ी-बड़ी कंपनियों का निर्माण हुआ. बोकारो स्टील प्लांट, टाटा स्टील, एचईसी जैसी कंपनियां तो देश की नामचीन कंपनियां है. स्वाभाविक है इसके कारण बड़ी संख्या में डेमोग्राफिक चेंज भी हुआ, निश्चित रुप से इसके कारण राजपूत जाति की आबादी में भी बदलाव आया होगा. इस हालत में यदि राजपूत समाज का सात फीसदी आबादी होने का दावा सही है, तो इनकी नाराजगी का असर भाजपा के प्रदर्शन पर भी देखने को मिल सकता है.
कुड़मी जाति भी लगा रही है अपनी उपेक्षा का आरोप
वैसे जानकारों का दावा है कि राजपूत जाति की इस नाराजगी का सीधा असर पलामू, चतरा और धनबाद संसदीय सीट पर देखने मिल सकती है. हालांकि राजपूत जाति की तुलना में कुर्मी-महतो की आबादी झारखंड में कहीं बड़ी है. एक अनुमान के अनुसार कुड़मी जाति की आबादी करीबन 25 फीसदी की है. बावजूद इसके उनको भी भाजपा में प्रर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला. 25 फीसदी आबादी वाले इस जाति को लोकसभा की महज एक सीट मिली थी. जमशेदपुर से विद्युत वरण महतो को उम्मीदवार बनाया गया था. दूसरी सीट आजसू के हिस्से से आयी थी, यानि 25 फीसदी आबादी वाले कुड़मी जाति को 14 लोकसभा में से महज दो सीट. इस बार भी कुड़मी जाति करीबन उसी हाल में खड़ी है. राज्य सभा चुनाव के वक्त भी कुड़मी जाति को इस बात का विश्वास था कि इस बार किसी कुड़मी चेहरे को राज्य सभा भेज कर इस कमी को पूरा किया जायेगा, लेकिन भाजपा ने कुड़मियों को निराश कर एक बार फिर से वैश्य जाति को राज्यसभा भेजना पसंद किया. हालांकि उस वक्त आदिवासी समाज के द्वारा भी इस समीर उरांव से खाली हुई सीट पर दांवा ठोका जा रहा था. रांची की पूर्व मेयर आशा लकड़ा को इसका प्रबल उम्मीदवार बताया जा रहा था.
कमल की राह में चुनौतियां
इस हालत में साफ है कि असंतोष और आक्रोश कई सामाजिक समूहों में बनी हुई है. जहां कुड़मी जाति का आक्रोश का कारण उनका समूचित प्रतिनिधित्व का नहीं होना, कुड़मी जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करने के सवाल पर जनजातीय मंत्री अर्जुन मुंडा को दो टूक जवाब, वहीं पूर्व सीएम हेमंत की गिफ्तारी के बाद आदिवासी समाज के बीच भी एक आग धधकती नजर आ रही है और अब इधर राजपूत जाति भी मोर्चा खोलता नजर आ रहा है. इस हालत में इस बार भाजपा की राह कितनी आसान होगी, इस पर कई सवाल है. सियासी जानकारों को मानना है कि यदि समय रहते कुड़मी, आदवासी और राजपूत जाति में पसरते इस असंतोष को नियंत्रित नहीं किया गया, तो इस बार भाजपा के लिए झारखंड में कमल खिलाना मुश्किल हो सकता है.
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