रांची(RANCHI): वर्षों से चली आ रही परंपरा के अनुसार बीते शनिवार को डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय में इफ्तार पार्टी का आयोजन हुआ था, लेकिन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के द्वारा इस बार इस आयोजन को मुद्दा बना दिया गया, छात्र नेताओं के द्वारा जयश्रीराम के नारों के उद्घोष के बीच विश्वविद्यालय निंबधक डॉ नमिता सिंह की घेराबंदी की गयी, उनके सामने जय बजरंगबली के नारे लगाये गये.
अब कभी नहीं होगा इफ्तार पार्टी का आयोजन
छात्रों का दावा है कि वीसी डॉ तपन शांडिल्य द्वारा यह आश्वासन दिया गया है कि भविष्य में इस घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी, अब विश्वविद्यालय प्रशासन के द्वारा कभी भी इफ्तार पार्टी का आयोजन नहीं किया जायेगा. दावा यह भी किया जा रहा है कि जयश्रीराम के नारे लगाते हुए छात्रों से वीसी डॉ तपन शांडिल्य ने कहा है कि इस बार गुरु दक्षिणा देकर मामले को रफा-दफा कर दो, भविष्य में विश्वविद्यालय प्रशासन के द्वारा इफ्तार पार्टी का आयोजन नहीं किया जायेगा.
क्या होने जा रहा है एक और विवाद का जन्म
लेकिन वीसी डॉ तपन शांडिल्य के इस कथित आश्वासन के बाद एक और विवाद का जन्म होना निश्चित है. यदि उनका आश्वासन सही हो तो क्या यह माना जाय कि एक छोटे से छात्रों के गुट के आगे पूरा विश्वविद्यालय प्रशासन निढाल हो गया? क्या मुट्ठी भर छात्रों के विरोध करने मात्र से विश्वविद्यालय प्रशासन ने वर्षों पुरानी अपनी परंपरा को तिलांजलि देने का निर्णय ले लिया, या फिर यह माना जाय कि खुद विश्वविद्यालय प्रशासन की सोच भी वही थी, जिसकी मांग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के द्वारा की जा रही थी और वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को बंद करवाने के लिए मुठ्ठीभर छात्रों को आगे कर बेहद शांतिपूर्ण तरीके से इसका फैसला ले लिया गया? क्या यह माना जाय की विश्वविद्यालय जैसे जगह, जिसकी सोच वैश्विक होने चाहिए, अब इतनी सीमित हो गयी, क्या कुछ मुट्ठी भर अतिवादियों की मांग के आगे पूरा विश्वविद्यालय प्रशासन झूक गया.
सवाल सिर्फ इफ्तार पार्टी का नहीं
यहां सवाल सिर्फ इफ्तार पार्टी का नहीं है, सवाल उस संकीर्ण सोच का है, जो इस तरह के धार्मिक प्रतीकों की राजनीति कर बहुलतावादी सोच के दायरे को सीमित कर रहा है. जिसकी सोच है कि वह अपने बहुमत के आधार पर कुछ भी कर और करवा सकता है.
याद रहे कि इसी विश्वविद्यालय परिसर में सरस्वती पूजा से लेकर दूसरे सभी उत्सवों का बड़े ही धूमधाम से आयोजन होता है. तब तो कहीं से ही इसका विरोध नहीं होता, लेकिन बात इफ्तार की आते ही कुछ मुट्ठी भर छात्रों को उन्मादी नारों की याद आ जाती है, और बड़ी बात यह है कि विश्वविद्यालय प्रशासन भी इन तत्वों के आगे अपने को असहाय पाने लगता है, या फिर समझा बुझा कर मामले को टालने की कोशिश करता है, जबकि जरुरत सख्त कार्रवाई की है, निश्चित रुप से विश्वविद्यालय में परिसर में किसी भी तरीके के धार्मिक आयोजन पर रोक लगनी चाहिए, लेकिन इसके लिए एक धर्म विशेष के आयोजनों को ही क्यों चुना जाये?
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