पटना(PATNA)-जाति आधारित गणना को नीतीश कुमार का मास्टर स्ट्रोक माना जाता था और इस बात का दावा किया जाता था कि जाति आधारित गणना का आंकड़ा सामने आते ही बिहार और देश की राजनीति में भूकंप आयेगा, सबसे बड़ी चुनौती उन राजनीतिक दलों के सामने आयेगी, जिनका सामाजिक आधार कुछ विशेष सामाजिक समूहों के बीच ही सिमटी है, और उनके टिकट वितरण में एक बड़ी आबादी के बावजूद हाशिये पर खड़े सामाजिक समूहों को समूचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता था. हालांकि बिहार सरकार के दावे के अनुसार जाति आधारित गणना का कार्य पूरा हो चुका है, इसके आंकड़ों को अपलोड कर दिया गया है, आज भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में बिहार सरकार का पक्ष सुना जाना है और सुप्रीम कोर्ट से इसके आंकड़ों के प्रकाशन पर रोक की मांग की गयी है.
लगता रहा है भाजपा पर जातीय जगगणना की राह में टांग अड़ाने का आरोप
ध्यान रहे कि जदयू- राजद भाजपा पर जाति आधारित गणना की राह में टांग अड़ाने का आरोप लगाती रही है, उनका दावा है कि जाति आधारित गणना के विरोध में पटना हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले और कोई नहीं भाजपा कार्यकर्ता और समर्थक ही हैं. भारी जनदबाव के कारण भाजपा एक तरफ मौखिक रुप से इसका समर्थन करती है, लेकिन एक रणनीति के तहत कोर्ट में चुनौती पेश करवा कर इसकी राह में अड़ंगा भी लगाती है. यही उसका दुहरा चरित्र है.
आंकड़ों के प्रकाशन के पहले ही भाजपा ने खेला अति पिछड़ा कार्ड
लेकिन एक चीज जो गौर करने वाली वह यह है कि अभी जाति आधारित गणना के आंकड़ों का प्रकाशन भी नहीं हुआ है, और भाजपा की ओर से पिछड़ा अति पिछड़ा कार्ड खेलने की शुरुआत हो चुकी है. सम्राट चौधरी के बाद अब हरि सहनी को सामने लाकर भाजपा ने यह राजनीतिक संकेत दे दिया है कि भले ही नीतीश कुमार आंकड़ों के इंतजार उलझे हों, पिछड़ा अतिपिछड़ा कार्ड खेलने की तैयारी में जुटे में हो, लेकिन अब भाजपा भी इसमें पीछे रहने वाली नहीं है.
अपने सवर्णवादी पार्टी के इमेज से मुक्ति चाहती है भाजपा
वह भी अपने सवर्णवादी पार्टी के इमेज से मुक्ति चाहती है, सामाजिक आधार का विस्तार चाहती है, भले ही इस कोशिश में उसे अपने पुराने दिग्गजों से किनारा करना पड़े, क्योंकि अंतिम लक्ष्य सत्ता है, वैसे भी राजनीतिक का यह खेल प्रदेश अध्यक्ष, विरोधी दल के नेता और विधायक, विधान पार्षदों के टिकट बंटवारें से ही समाप्त नहीं होता है. राजनीतिक का अंतिम खेल तो विधान सभा चुनावों के बाद खेला जाता है, जब बात सीएम पद की आ जाती है, और तब ‘तब का खेल’ खेला जायेगा और सम्राट चौधरी, हरि सहनी से लेकर ताराकिशोर प्रसाद को केशव प्रसाद मौर्या की स्थिति में लाने में देर नहीं लगेगी.
नतीजों के बाद सीएम चुनने के समय होता है अंतिम खेल
वैसे भी भाजपा अधिकांश राज्यों में बगैर सीएम चेहरे के ही चुनाव लड़ती है, ताकि हर सामाजिक समूह में आशा का संचार होता रहे और एन वक्त पर असली खेल किया जाय. ध्यान रहे कि यूपी चुनाव के पहले तक योगी आदित्यनाथ की कोई चर्चा नहीं थी, हर तरफ केशव प्रसाद मौर्या का चेहरा चमक रहा था, पिछड़ी जातियों को इस बात का सौ फीसदी यकीन था कि उसके अगले सीएम केशव प्रसाद मौर्य ही होंगे, लेकिन सत्ता मिलते ही राजनीति के चौसर पर उन चेहरों का उदय हुआ, जिनकी पूछ चुनाव के पहले अपने-अपने इलाकों में सीमित थी. और उसके बाद का इतिहास आपको सामने है, जैसे ही सिस्टम की ताकत एक व्यक्ति के साथ खड़ी होती है, आपकी आभा के सामने दूसरे सभी चेहरे ओछल होने लगते हैं. आज यूपी में इसी के शिकार केशव प्रसाद मौर्या हैं.
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