धनबाद(DHANBAD): तिब्बती शरणार्थी धनबाद पहुंचे हुए हैं. इनकी भारत आने की कहानी दुखद है लेकिन भारत सरकार के प्रयास से इन्हें इतनी अधिक सहूलियत मिली कि अब यह भारत छोड़ कर जाना नहीं चाहते. ये लोग 1959 में भारत आए और अब पूरी तरह से भारत के होकर रह गए है.1959 में जब भारत पहुंचे तो उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इनकी काफी मदद की. 31 मार्च 1959 को दलाई लामा 70- 80 हजार लोगों के साथ भारत आए थे. इसके पहले उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से बात की तो प्रधानमंत्री ने उनके आने को सहस्त्र स्वीकार कर लिया. उसके बाद आसाम, मसूरी होते हुए तिब्बती भारत में प्रवेश किये.
1959 में दलाई लामा के साथ 70 -80 हज़ार पहुंचे थे भारत
उस समय दलाई लामा के साथ 70- 80 हजार लोग थे. आज तो यह सभी भारत के हो गए हैं और भारत सरकार के प्रति कृतज्ञ भी है. सरकार ने इनके बच्चों के लिए अलग स्कूल की व्यवस्था दी, इनको भाषा की कोई समस्या ना हो, इसके लिए अलग से पढ़ाई शुरू करवाई, कई राज्यों में लीज पर जमीन दी. जो कि इनके जीविका के साधन बानी. सबसे अधिक जमीन कर्नाटक में मिली, महाराष्ट्र में जमीन मिली. आज यह लोग रोजगार के बाद खेती का भी काम करते है. इनके बच्चे फौज में भी जाते हैं, नौकरी भी करते हैं और जाड़ो के सीजन में जगह -जगह गर्म कपड़ों के बाजार सजाते हैं. इससे अच्छी आमदनी उनकी हो जाती है. जहां जाते हैं वहां के लोग उन्हें प्यार और स्नेह देते हैं.
धनबाद में 1982 से लगा रहे हैं मार्किट
धनबाद पहुंचे रिफ्यूजी स्वेटर सेलर वेलफेयर एसोसिएशन के उपाध्यक्ष लोप शेक ज्ञात्सो ने बताया कि 1982 से लोग धनबाद में बाजार लगा रहे हैं. केंदुआ, करकेंद , कतरास ,निरसा में अलग-अलग बाजार लगते थे लेकिन बाद में वह सब लोग एकजुट होकर बड़े आकार में बाजार लगाने लगे. इसका उन्हें लाभ भी मिला, वह भाड़े के घरों में रहते हैं और जितने दिन रहते हैं. उतने दिन का भाड़ा भुगतान करते हैं. उन्हें रहने में कहीं कोई परेशानी नहीं होती है. वही, एसोसिएशन के प्रेसिडेंट लोदेन ने कहा कि धनबाद में जनता के साथ-साथ सरकारी संस्थाओं का उन्हें बहुत सहयोग मिलता है. महिला विक्रेताओं ने भी कहा कि उन्हें कोई परेशानी नहीं होती है, हां कभी-कभी कुछ मनचले लोग कुछ बोल देते हैं, समझ में तो आ जाती हैं, लेकिन उसका जवाब नहीं देती है, क्योंकि वह तो व्यवसाय करने के लिए आई है. उन्हें झगड़ा से क्या लेना देना. कुल मिलाकर तिब्बती शरणार्थी भारत छोड़कर कोई ले भी जाए तो जाना नहीं चाहते है. भारत के परिवेश में वह पूरी तरह से रच बस गए हैं.
रिपोर्ट : शाम्भवी सिंह,धनबाद
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