बोकारो(BOKARO): पहले जब रेडियो का युग था तो उस वक्त आमजन रेडियो पर समाचार, गाने सहित कई ज्ञान एवं मनोरंजन की बाते सुना करते थेउसके बाद आया टेलीविजन का दौर, और जब टेलीविजन का दौर था तो उस वक्त परिवार में सभी लोग एक साथ बैठकर टेलीविजन देखा करते थे,और आनंद उठाते थे. आमजन को टेलीविजन पर अक्सर एक प्रचार बहुत ही जोर शोर से देखने को मिल जाता था, जिसका शीर्षक था कर लो दुनिया मुट्ठी में. लोग इस प्रचार को देखकर आश्चर्य में पड़ जाते थे कि भला सारी दुनिया हमारी मुट्ठी में कैसे कैद हो सकता है. फिर मोबाइल का युग आया. मोबाइल के आने से लोग घूमते फिरते,आते जाते कहीं भी आसानी से बात करने लगे. धीरे धीरे वैज्ञानिक तकनीकी के कारण सारी दुनिया की जानकारी मोबाइल पर आसानी से मिलने लगी, जिसका फायदा भी लोगो को मिलने लगा. लोग किसी भी चीज की जानकारी मोबाइल पर आसानी से प्राप्त करने लगे. मोबाइल तकनीक के इस्तेमाल से आमजन को फायदा तो जरूर हुआ, लेकिन वे धीरे धीरे मोबाइल की दुनिया में खोते चले गए, जिसके कारण परिवार और रिश्तों की डोर कमजोर होने लगी! घर-परिवार में ही नजर डाली जाए, तो आदमी अपनी जिंदगी भूलकर मोबाइल में कैद होता जा रहा है. टेलीविजन के रहते हुए भी आमजन सारे न्यूज, धारावाहिक, फिल्में जैसे कई मनोरंजन की चीजें मोबाइल पर ही देखने लगे. वाहन चलाते और भोजन करते समय भी मोबाइल का उपयोग आम जिंदगी का हिस्सा बनता जा रहा है. मोबाइल के अधिक उपयोग के सेहत पर दुष्परिणाम नजर आने लगे हैं.
पहले के दौर में जब मोबाइल नहीं था, तो लोगों का आपस में काफी मिलना-जुलना होता था. संवाद का सिलसिला चलता रहता था. लोग एक-दूसरे के दर्द और भावना को समझते थे. साथ ही समस्याओं के निपटारे के लिए प्रयास करते थे. अब मोबाइल के आगमन के बाद बातें तो काफी हो रही हैं, लेकिन दिलों के बीच की दूरियां काफी बढ़ गई हैं. लोगों के बीच उचित संवाद नहीं हो पा रहा है, जिससे रिश्तों की बुनियाद कमजोर पड़ती जा रही है. तकनीकों का इस्तेमाल हमारे जीवन में इस हद तक दखल दे चुका है कि अब इंसान को दूसरे इंसान की ज्यादा जरूरत नहीं रही. आपस में मिल बैठकर गपशप करने की जरूरत खत्म होती जा रही है.
एक समय वो दौर था जब बच्चे आराम से सड़कों पर खेला करते थे.उन्हें बेफिक्री रहती थी. ये वो दौर नहीं था जब स्कूल बैग के बोझ तले दबे हुए बच्चे अपना अधिकतर समय कंप्यूटर या स्मार्टफोन के सामने बिताते थे. ये वो दौर था जब बच्चे सड़कों पर गिल्ली डंडा और कंचे खेलने जाया करते थे. उस समय भागदौड़ कर बच्चे थक जाते थे, इसलिए रात का खाना खाकर जल्दी सो भी जाते थे. लेकिन विडंबना यह है कि बच्चों पर इसका बहुत ज्यादा असर पड़ रहा है. वे तकनीक संचालित करना जानते हैं, लेकिन रिश्ते और भावनाएं वे नियंत्रित नही कर पाते हैं. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसे बच्चे जो सामाजिक रूप से पूरी तरह कटते जा रहे हैं, वे किसी बुरी स्थिति के आने पर अवसाद में चले जाते हैं. बहुत बार बच्चे चाहते हैं कि उन्हें कोई उनकी बातें सुने, लेकिन व्यस्त जिंदगी में माता-पिता भी काम के बाद अपने फोन या इंटरनेट की दुनिया में व्यस्त हो जाते हैं. हमें इससे बचने की जरूरत है. हमें तकनीकी का इस्तेमाल जरूर करने चाहिए, लेकिन रिश्तों की डोर को भी बचाये रखना हमारे लिए उतना ही जरूरी है. रिश्तों की डोर बचेंगी तभी हमारे जीवन में मिठास आएंगी.
रिपोर्ट: संजय कुमार, गोमिया/बोकारो
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