धनबाद(DHANBAD): एक समय था जब देश के सात कोयला उत्पादित राज्यों की 28 लोकसभा सीटों पर कोयला कर्मियों एवं मजदूरों का दबदबा था .कोयला कर्मी और मजदूर ही निर्णायक होते थे. इन राज्यों में झारखंड ,बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं तेलंगाना प्रमुख रूप से शामिल हैं. इन सभी राज्यों में कोल इंडिया की अनुषंगी कंपनियां काम करती हैं .3 लाख से अधिक कोयला कर्मी अभी भी काम करते हैं. लेकिन यूनियनों की पकड़ ढीली होने के कारण अब वह सब बातें नहीं है .झारखंड के धनबाद और आसनसोल का रानीगंज इलाके इसके उदाहरण है.
एक समय था जब यहां कोयला मजदूरों का दबदबा था. लेफ्ट पार्टी की यूनियन भी मजबूत हुआ करती थी. कांग्रेस की यूनियन भी मजबूत थी. वैसे अब तो पहले के मुकाबले कोयला कर्मियों की संख्या भी घटी है. कोल सेक्टर में मजदूर संगठनों की पकड़ ढीली हुई है .धनबाद में आज वामपंथी पार्टियां बहुत कमजोर हुई है. एक समय था जब धनबाद की राजनीति ट्रेड यूनियन पर केंद्रित थी. अधिकतर सांसद वही बने, जिनकी श्रमिक राजनीति की पृष्ठभूमि थी. 1977, 1980 और 1989 में जीते मार्क्सवादी चिंतक ए के राय मजदूर आंदोलन के लिए ही जाने जाते थे. मार्क्सवादी समन्वय समिति नामक राजनीतिक पार्टी एवं बिहार कोलियरी कामगार यूनियन नाम के श्रमिक संगठन के भरोसे धनबाद को वामपंथी की राजनीति का केंद्र बना दिया था. लेकिन धीरे-धीरे यह कमजोर पड़ता गया. आसनसोल एवं रानीगंज का कोयला क्षेत्र भी 2004 तक मजदूर नेताओं के कारण सीपीएम का गढ़ रहा. अब हालात यह है कि इस कोयला क्षेत्र में सीपीएम तीसरे और चौथे नंबर की पार्टी बन गई है.
मजदूर नेता हराधन राय 1989 में आसनसोल के सांसद बने. इसके बाद 1996 तक लगातार जीतते रहे. झरिया पुनर्वास योजना उन्हीं की याचिका पर मंजूर हुई थी. इसके बाद हराधान राय की तर्ज पर ही विकास चौधरी 1998 से 2004 तक आसनसोल के सांसद रहे और उसके बाद से ही कोयला क्षेत्र में राजनीति का टर्निंग पॉइंट आया.सीपीएम को पीछे धकेल कर भाजपा और तृणमूल कांग्रेस एक बड़ी ताकत बन गई. अब लड़ाई भाजपा बनाम तृणमूल की हो गई है. वैसे पूरे बंगाल में यह लड़ाई भाजपा बनाम टीएमसी की चल रही है. बंगाल में तृणमूल अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश कर रही है तो भाजपा भी 2019 से अधिक सीट लेने के लिए हर कोशिश कर रही है. लेकिन इतना तो तय है कि कोयला उत्पादित राज्यों के जिन लोकसभा सीटों पर कोयला मजदूरों का वर्चस्व हुआ करता था, वह अब नहीं रह गया है. मजदूर संगठन भी कमजोर पड़ गए हैं. तो कोयला कर्मियों की संख्या भी घटी है.
रिपोर्ट: धनबाद ब्यूरो
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