टीएनपी डेस्क (TNP DESK): इन दिनों झारखंड में फिर से अपना सिर उठाने लगा है नक्सलवाद. इन्हीं बढ़ती नक्सली घटनाओं को देखते हुए 4 सितंबर को सीआरपीएफ ने ऑपरेशन ऑक्टोपस लॉन्च किया था. इस ऑपरेशन का उद्देश्य झारखंड में नक्सलियों को उनके ही गढ़ में घेरना है. हाल ही में सूचना मिली कि झारखंड के बेहद ही दुर्गम और नक्सली गढ़ माने जाने वाले सारंडा के जंगलों में पीएलजीए का नक्सली सप्ताह मनाने के लिए नक्सलियों का जमावड़ा लगने वाला था. इन्हीं सूचनाओं के आधार पर सारंडा में सुरक्षा बलों ने चलाया सर्च ऑपरेशन और इसके बाद हुआ नक्सलियों से मुठभेड़. बता दें इस मुठभेड़ में कई हार्डकोर नक्सली ने सुरक्षा बलों पर गोलियां चलाई जिसमें पाँच जवान घायल हो गए. इधर नक्सलियों के भी मारे जाने की सूचना है. ये नक्सली इस घने जंगलों में नक्सली सप्ताह मनाने के लिए जुटने वाले थे. बकायदा इन्होंने अपने दस्ते में भर्ती होने के लिए प्रचार का पर्चा भी चिपकाया था. नक्सली पिछले 22 सालों से 2 से आठ दिसंबर तक नक्सल सप्ताह मानते हैं. इस एक सप्ताह नक्सली अपने खोए हुए लड़ाकों को याद करते हैं. इस बार भी कुछ ऐसा ही इरादा लिए ये नक्सली पेड़ों और गांवों में पर्चा चिपका रहे थे. हॉक फोर्स ने नक्सलियों के पास से जो पर्चे बरामद किए हैं. उनमें लिखा है “पीएलजीए में बड़ी संख्या में युवक-युवती भर्ती हो जाओ. मोदी के प्रति क्रांतिकारी समाधान 2017-2022 राजनीतिक हमला मुर्दाबाद. शोषण और उत्पीड़न से भरी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए पीजीएलए में भर्ती होकर जनयुद्ध तेज करो.“ इस पर्चे में साफ आमंत्रण था की युवक युवतियां दस्ते में भर्ती हो जाओ नक्सली बन जाओ .
जानिए क्या है पीएलजीए, क्यों मनाते हैं नक्सली "नक्सल सप्ताह"
पीएलजीए का फुल फ़ॉर्म पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी है. इसमें नक्सली संगठन के ट्रेंड लड़ाकों को शामिल किया जाता है. ये लड़ाके सुरक्षाबल के जवानों के साथ आमने-सामने की मुठभेड़ में शामिल होते हैं. बता दें ये लड़ाके गुरिल्ला युद्ध में माहिर होते हैं तथा अत्याधुनिक हथियारों से लैस होते है. इन्हें ही पीएलजीए सदस्य कहा जाता है. हर साल 2 दिसंबर से 8 दिसंबर तक अपने इन पीएलजीए के सदस्यों के मारे जाने की याद में नक्सली इस सप्ताह को मनाते हैं. इसके साथ ही अपने पूरे साल का लेखा-जोखा जारी करते हैं. आने वाले साल में संगठन कैसे चलेगा, इसकी प्लानिंग भी बड़े नक्सली लीडरों के द्वारा की जाती है. इस दौरान सुरक्षाबलों पर हमले की रणनीति भी बनाई जाती है. बता दें बीते सप्ताह इन्हीं पीएलजीए नक्सली सप्ताह मनाने आए नक्सलियों से आर्मी की मुठभेड़ हुई थी. सुरक्षा बलों और नक्सलियों के इस मुठभेड़ में सुरक्षा बलों को अच्छा खासा नुकसान हुआ वहीं जंगल में लकड़ी लेने गए आम नागरिक की भी मृत्यु डायनामाइड फटने से हो गई. ये कोई पहला मामला नहीं है जब नक्सलियों ने खूनी तांडव मचाया है बल्कि ये सिलसिला तो सन 1971 से चला आ रहा. आईए जानते है क्यों माओवाद इतना हिंसक और बर्बर है, क्या है इसका इतिहास, कौन है इसके प्रणेता, नक्सलियों के इस पौधे को जिसे खून से सींच कर वृक्ष बनाया जा चुका है इसको बार बार काटे जाने के बाद भी इस वृक्ष में पुनः नई डालियाँ और पत्ते निकल ही आते हैं और पुनः शुरू हो जाता है रक्तपात का घिनौना खेल. फिलहाल 11 राज्यों के 90 जिले वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित हैं. चलिए सबसे पहले ये जानते है कि नक्सलवाद है क्या. कहां से मिलता है फंड और कैसे होती है दस्ते में लड़के लड़कियों की भर्ती ? इस आर्टिकल में हम ये भी जानेंगे की एक अहिंसक विचारधारा से खूनी संघर्ष में कैसे बदला नक्सलवाद.
सरकार की नीतियों के खिलाफ शुरू हुआ था आंदोलन
शुरुआत में नक्सलवाद एक विचारधारा थी जिसमें सरकार की नीतियों, भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आम जनता अपने कुछ विचार रखती थी. या यूं कहें की नक्सलवाद का जन्म सिस्टम की खामियों को दूर करने के लिए हुआ था, पर यह धीरे धीरे हिंसक राजनीति की भेंट चढ़ गया ! इसका जन्म जिन उद्देश्यों को लेकर हुआ था उन उद्देश्यों से यह बहुत ही जल्द भटक गया. “सन 1967” ये वो वक्त था जब यह समाज ऊंच-नीच भेद-भाव से भरा पड़ा था, किसानों की दुर्दशा अपने चरम पर थी. हर जगह उपेक्षा से परेशान पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव के किसानों ने इस दुर्दशा का जिम्मेदार सरकार की गलत नीतियों को समझा. फिर सिस्टम को बदलने और किसानों गांवों को महत्व देने के लिए लोग गोलबंद हुए और इसी तरह एक आंदोलन का जन्म हुआ जो की नक्सलवाद कहलाया. चूंकि पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से इस आंदोलन की पहली आवाज उठी थी इसलिए इसे “नक्सलवाद” का नाम दिया गया. यह विद्रोह गरीबों को सिस्टम में अपनी जगह दिलाने के लिए हुआ था. जमींदारी और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ छेड़ा गया ये जंग वैसे तो गरीबों के लिए किया गया था लेकिन जल्द ही यह विद्रोह अपने मूल भावना से भटक गया. इसके बाद सामने आया माओवादियों का घृणित चेहरा और धीरे-धीरे यह विद्रोह सबके लिए हिंसक होता चला गया. सरकार, सिस्टम, जमींदार, पूंजीवाद के विरोध के लिए एकत्र हुए लोग इसमें ही उलझ कर राजनीति की भेंट चढ़ गए. आज हालात ये है कि नक्सली जिस गरीब किसानों के लिए संगठित हुए थे आज उसी गरीब किसानों के लिए परेशानी का सबब बने हुए है, और लगातार अपने लक्ष्य से भटक कर आज तक देश को खोखला करते जा रहे हैं. बता दें उनका मानना था कि भारतीय श्रमिकों एवं किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियां उत्तरदायी हैं जिसके कारण उच्च वर्गों का शासन तन्त्र और फलस्वरुप कृषितन्त्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है. इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रान्ति से ही समाप्त किया जा सकता है. 1967 में "नक्सलवादियों" ने कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई. इन विद्रोहियों ने औपचारिक रूप से स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के विरुद्ध भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी. 1971- 72 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया.
माओवाद ने दिया बंगाल को "नक्सली नेता"
नक्सली चीन की कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बड़े प्रशंसक थे इसी कारण इसे माओवाद कहा जाता है. भूमि अधिग्रहण को लेकर देश में सबसे पहले आवाज नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ ,इस आंदोलन ने लोगों के मन को ऐसे बदला कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की सत्ता ही बाहर हो गई, और वह आज तक सत्ता में वापस आ ना सकी ! इस आंदोलन के कारण ही पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी सरकार के रूप में आई और 1977 में ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने ! जल्द ही बंगाल विजय के बाद बंगाल से निकली हुई ये चिंगारी अब अपने आस पास के राज्यों में भी फैलने लगी थी .
गांवों से निकल कर सत्ता तक पहुँचने की अंधी ललक ने किया सत्यानाश
नक्सलियों का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां ही जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है और इसे केवल बंदूक के दम पर ही समाप्त किया जा सकता है. सन 1971 में यह आंदोलन दो भागों में बट गया, तब एक गुट का नेतृत्व सत्यनारायण सिंह ने किया, यह गुट सरकार के खिलाफ बंदूक के बल पर सत्ता को हासिल करना चाहता था. तथा दूसरा गुट जिसकी अगुआई चारू मजूमदार ने की थी, इस गुट ने सरकार के खिलाफ एक राजनीतिक पार्टी बनाई. सन 1972 में आंदोलन के हिंसक हो जाने के कारण चारु मजूमदार को गिरफ्तार कर लिया गया और 10 दिन के कठोर कारावास के दौरान जेल में ही मौत हो गई और उनके साथी कानू सान्याल ने आंदोलन को हिंसक होते देख तंग आकर 23 मार्च 1972 को आत्महत्या कर ली ! इसके बाद सन 1971 के आंतरिक विद्रोह और मजूमदार की मृत्यु के बाद आंदोलन अपने लक्ष्य से भटक गया .
बिहार पहुंच कर बदल गया आंदोलन का स्वरूप
एक जनहित के नाम पर शुरू हुआ नक्सलवाद आंदोलन जब बिहार पहुंचा तब यह कुराजनीति की भेंट चढ़ गया और यह जमीनी लड़ाई ना रहकर जातीय वर्ग की लड़ाई बन गयी ! यहां आने के बाद उच्च वर्ग और निम्न वर्ग की लड़ाई मे तब्दील हो गया माओवाद. जिसके बाद नक्सलियों के साथ साथ कई और गुटों का निर्माण हुआ. इनमें श्री राम सेना रणवीर सेना का नाम प्रमुख है. श्रीराम सेना जो माओवादियों की सबसे बड़ी सेना थी, उसने उच्च वर्ग के विरुद्ध सबसे पहले हिंसक प्रदर्शन करना प्रारम्भ किया. जिसके जवाब में उच्च वर्गों ने भी अपनी एक गुट बनाई जिसे रणवीर सेना का नाम दिया और फिर ये लड़ाई वैचारिक न होकर जमीनी आतंकवाद का रूप धारण कर लिया.
जानिए कैसे होती थी दस्ते में लोगों की भर्ती
नये लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए नक्सली कई तरीके अपनाते हैं. इसमें से एक प्रमुख तरीका है किसी 'क्रांतिकारी व्यक्तित्व' का नाम लेकर या उसके व्यक्तित्व और कृतित्व की बार बार चर्चा करना. भर्ती करने के लिए नक्सली नौजवानों और विद्यार्थियों को मुख्यतः लक्ष्य करते हैं. नक्सली जिस क्षेत्र में अपना पैर जमाते हैं, सबसे पहले वहाँ की पुलिस पड़ाव या चौकी को उड़ा देते हैं. गाँव में लोगों पर भय व्याप्त करने के लिए ये लोग जन अदालत लगाते हैं. साथ ही फरमान सुना देते हैं कि यदि कोई अपनी समस्या लेकर पुलिस के पास गया तो सेन्दरा अर्थात गर्दन काट दिया जाएगा. जन अदालत में माओवादी लोगों को तालिबानी सजा भी सुनाते हैं. इससे लोगों को उनका नेतृत्व मानना ही पड़ता है . इसके बाद हर घर से लेवी और हर घर से दस्ते के लिए एक आदमी की भर्ती का नियम निकाल कर अपने दस्ते में ग्रामीणों को भर्ती कराते हैं. इस व्यवस्था के बाद धीरे धीरे पूरा गाँव ही नक्सली बनने लगता है इसके बाद इनकी जमीन और खेती का उपयोग कर नक्सली अपनी वित्तीय जरूरत को पूर्ण करते हैं .
जानिए कहां से मिलता है नक्सलियों को फंड
नक्सलवाद के वित्तपोषण के भी कई स्रोत हैं. इसमें से सबसे बड़ा स्रोत खनन उद्योग है. नक्सली, अपने प्रभाव-क्षेत्र के सभी खनन कम्पनियों से उनके लाभ का तीन से छह प्रतिशत वसूलते हैं. डर के मारे सभी कम्पनियाँ बिना ना-नुकर किए नक्सलियों को रंगदारी दे भी देती है. नक्सली संगठन मादक दवाओं (ड्रग्स) का भी व्यापार करते हैं. नक्सलियों को मिलने वाला लगभग 40 प्रतिशत फण्ड नशे के व्यापार से ही आता है. कई बार ग्राम सभा की आड़ में नक्सली पथलगड़ी का सहारा भी लेते हैं और अपने प्रभावित क्षेत्र में पुलिस और बाहरी लोगों की आवाजाही को बंद कर देते हैं इसके बाद अंदर की भूमि पर अफीम और अन्य ड्रग्स उगाए जाते हैं और इससे ही इनका वित्तीय जरूरत पूरा होता है.
रोकथाम के लिए सरकार ने अबतक क्या कदम उठाए
ऐसा नहीं की इसे रोकने के लिए कोई उपाय नहीं अपनाये गए. सरकार ने समय समय पर कई अभियान चला कर नक्सलियों की कमर तोड़ कर रख दी लेकिन इसे जड़ से खत्म नहीं किया जा सका. परिणामतः कुछ सालों की खामोशी के बाद नक्सली करते हैं धमाका और फिर चलता है एक अभियान. आइए जानते हैं अबतक कितने अभियान इन नक्सलियों के उन्मूलन के लिए चल चुके है.
स्टीपेलचेस अभियान
यह अभियान वर्ष 1971 में चलाया गया. इस अभियान में भारतीय सेना तथा राज्य पुलिस ने भाग लिया था. अभियान के दौरान लगभग 20,000 नक्सली मारे गए थे.
ग्रीनहंट अभियान
यह अभियान वर्ष 2009 में चलाया गया. नक्सल विरोधी अभियान को यह नाम मीडिया द्वारा प्रदान किया गया था. इस अभियान में पैरामिलेट्री बल तथा राष्ट्र पुलिस ने भाग लिया. यह अभियान छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश तथा महाराष्ट्र में चलाया गया.
प्रहार
3 जून, 2017 को छत्तीसगढ़ राज्य के सुकमा जिले में सुरक्षा बलों द्वारा अब तक के सबसे बड़े नक्सल विरोधी अभियान ‘प्रहार’ को प्रारंभ किया गया था . सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों के चिंतागुफा में छिपे होने की सूचना मिलने के पश्चात इस अभियान को चलाया गया था. इस अभियान में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कोबरा कमांडो, छत्तीसगढ़ पुलिस, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड तथा इंडियन एयरफोर्स के एंटी नक्सल टास्क फोर्स ने भाग लिया. यह अभियान चिंतागुफा पुलिस स्टेशन के क्षेत्र के अंदर स्थित चिंतागुफा जंगल में चलाया गया जिसे नक्सलियों का गढ़ माना जाता है. इस अभियान में 3 जवान शहीद हो गए तथा कई अन्य घायल हुए. अभियान के दौरान 15 से 20 नक्सलियों के मारे जाने की सूचना सुरक्षा बल के अधिकारी द्वारा दी गई. खराब मौसम के कारण 25 जून, 2017 को इस अभियान को समाप्त किया गया.
नक्सलवाद भारतीय समाज का एक कोढ़ बन चुका है जिसका उन्मूलन सिर्फ शिक्षा और समानता से किया जा सकता है. इसके लिए चलाए जा रहे कार्यक्रम पर्याप्त नहीं हैं. हाल की घटनाओं को देखे तो पाएंगे की झारखंड के कई इलाकों मे नक्सलवाद फिर से अपना सिर उठाने को तैयार है.
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