धनबाद(DHANBAD): मुर्गा लड़ाई का खेल एक ऐसा खेल है, जो सामने वाले मुर्गे की मौत के साथ ही खत्म होता है. सोमवार को नए साल के दिन धनबाद के बरोरा थाना क्षेत्र के माथा बांध , बिच्छू पहाड़ी में इस खेल का आयोजन किया गया. हालांकि कुछ विवाद होने पर लपड़ - थप्पड़ भी हुए. लेकिन इसका खेल पर कोई असर नहीं हुआ. खेल देखने के लिए काफी भीड़ जुटी हुई थी. मुर्गा लड़ाई का खेल झारखंड में मनोरंजन का एक हिस्सा होता है. इसे अब तो जुआ के रूप में भी देखा जाता है. इस खेल का प्रचलन ग्रामीण इलाकों में अधिक होता है. मुर्गा लड़ाई के खेल का कोई विशेष सीजन नहीं होता. गांव में लगने वाले साप्ताहिक हाट और बाजारों में मुर्गा लड़ाई कराई जाती है. इस लड़ाई में एक-एक मुर्गे पर हजारों -हजार तक की बोली लगती है. मुर्गा लड़ाने वाले को अगर कोई मुर्गा पसंद आ जाता है, तो हजारों- हजार रुपए में इसे खरीद लेते है.
बड़े जतन से रखे जाते हैं लड़ाकू मुर्गे
इस मुर्गे को बड़े जतन से रखा जाता है. मुर्गे को हिंसक बनाने के लिए जंगलों में मिलने वाली जड़ी- बूटी भी खिलाई जाती है. लड़ाई के दौरान मुर्गे के पंजों पर हथियार बांधकर आपस में लड़ाया जाता है. मुर्गों के पैर में छुरा बांधना भी एक कला है, जिसे एक प्रशिक्षित व्यक्ति ही कर सकता है. इसके लिए भी अलग से शुल्क देना पड़ता है. यह लड़ाई तभी खत्म होती है, जब दो मुर्गों में से एक की मौत हो जाती है. मुर्गे की इस लड़ाई को देखने के लिए बड़ी संख्या में भीड़ जुटती है. आज बरोरा में भी काफी भीड़ थी. मुर्गा लड़ाई से पहले मुर्गों के मालिक उन्हें खिला -पिला कर मजबूत बनाते है. मुर्गों के भीड़ के बीच रहने की आदत लग सके इसलिए पहले उन्हें बाजार में कई बार लाया जाता है. मुर्गे को मैदान में उतरने से पहले उनको बिना हथियार के आपस में लड़ा कर ट्रेनिंग दी जाती है. लड़ाकू मुर्गों की कई प्रजाति होती है. इन में रंगवा, माला, झिजरा, चरका आदि काफी प्रचलित है.
धनबाद से संतोष की रिपोर्ट
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