टीएनपी डेस्क (Tnp desk):-हेमंत सोरेन के कार्यकल में छह उपचुनाव हुए, जिसमें से तीन विधायकों के असमयिक निधन के बाद खाली हुई सीट पर मतदान हुआ, जिसमे दो जेएमएम और एक में कांग्रेस विजय रही. इन दोनों सीटों पर सहानूभूति की लहर सियासी समिकरण को पीछे धकेल दिया. मंत्री बेबी की डुमरी की जीत तो ये साफ ही कर दी. दिवंगत जगरनाथ महतों के निधन के बाद खाली हुई, इस सीट में मुकाबला बेहद हाईप्रोफाइल हो गया था, कांटे की टक्कर आंकी जा रही थी. आजसू ने भाजपा के समर्थन में पूरी ताकत भी झोंक दी थी, लेकिन 17 हजार से ज्यादा मतों से उम्मीदवार यशोदा देवी को पराजय स्वीकार करनी पड़ी. जेएमएम की इस जीत से साफ हो गया कि सहानूभूति कही न कही मतदाताओं के मन में रहती है और अपने दिवंगत नेता की याद में वोट करते हैं. बात सिर्फ डुमरी उपचुनाव की नहीं है, बल्कि पिछले दो उपचुनाव को देखे तो यही तस्वीर उभर कर सामने आई है.
बेरमो से कांग्रेस के कुमार जयमंगल सिंह की जीत
2020 में कांग्रेस विधायक और मजदूर नेता राजेन्द्र सिंह के असमयिक निधन के बाद बेरमो सीट खाली हुई थी. जहां पर उनके बेटे कुमार जयमंगल सिंह कांग्रेस की तरफ से उपचुनाव में उतरा गया था. उनके सामने चुनौती थी बीजेपी के योगेश्वर बाटुल की. लेकिन, पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे युवा जयमंगल सिंह ने उन्हें पछाड़ दिया .14 हजार से अधिक मतो से जयमंगल ने धमाकेदार जीत दर्ज की और पहली बार विधानसभा पहुंचे. यहां भी बेरमो की जनता के मन में मजदूर नेता और पूर्व मंत्री राजेन्द्र सिंह की स्मृति मन में थी और सहानूभूति भी उभरी. इसकी बदौलत ही कांग्रेस की राह आसान बनीं.
मधुपुर से जेएमएम के हफीजुल अंसारी की जीत
2020 में कोराना काल के दौरान ही झारखंड सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री हाजी हुसैन अंसारी के निधन के बाद मधुपुर सीट खाली हुई थी. इसके बाद इस सीट पर हुए उपचुनाव में दिवंगत हाजी हुसैन के बेटे हफीजुल अंसारी को जेएमएम ने उतारा. इस उपचुनाव में भी सहानूभूति की लहर का फायदा हफीजुल को मिला. उन्होंने कांटे भरे मुकाबले में बीजेपी के प्रत्याशी गंगा नारायण सिंह को पांच हजार से ज्यादा मतों से शिकस्त दी.
इन दोनों चुनावी जीत के बाद डुमरी उपचुनाव में झारखंड सरकार के पूर्व शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो का इसी साल 6 अप्रैल को निधन हो गया था. इसके बाद उनकी वाइफ बेबी देवी 5 सितंबर को हुए चुनाव में जीत का परचम लहराया. देखा जाए तो चुनाव के दौरान ऐसा माहौल बनाया जाता है कि जनता अपने दिवंगत नेता को नहीं भूले है. इसके साथ ही उनके किए काम और यादों के सारे आवाम से वोट देने की गुजारिश की जाती है. सियासी पार्टियों के लिए ये तुरुप का इक्का असरकार साबित होता है, झारखंड में हुए छह में से तीन उप-चुनाव की जीत तो यही कहानी बंया करती है. जिसमे ये साबित होता दिखता है कि सियासी समीकरण और बड़े-बड़े चुनावी वादे के सामने साहनूभूति की लहर ज्यादा असरदायक होती है.
रिपोर्ट-शिवपूजन सिंह
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