Ranchi- एक वह भी दौर था, जब एक तांगेवाले के बेटे के आगे पूरा यूपी पानी मांगता था, जिसके एक इशारे भर से जमीनें खाली हो जाती थी, अतीक यानी आतंक, लेकिन यूपी के उसी डॉन की हत्या पत्रकारों के वेश में संगठित अपराधियों के द्वारा कर दी गयी और यह हत्या भी तब की गयी, जब महज दो दिन पहले अतीक के बेटे असद अहमद को यूपी पुलिस ने एक एनकाउंटर में मार गिराया गया था. बवाल तब भी मचा था, दावा तब भी किया गया था कि यह हत्या राजनीतिक सत्ता के इशारे पर एक फेक एनकाउंटर रुप में की गयी है, लेकिन इस बार अतीक के सफाये के पहले रणनीति में बदलाव किया गया?
पत्रकारिता की (सफेद?) चादर का इस्तेमाल
हत्यारों ने इस बार एक खूंखार डॉन के सफाये लिए पत्रकारिता की (सफेद?) चादर का इस्तेमाल किया? अपने बेटे की मौत से अन्दर तक टूट चुका अतीक को जब कड़ी सुरक्षा के बीच मेडिकल जांच के बाद प्रयागराज के काल्विन अस्पताल से वापस लाया जा रहा था, तभी मीडिया कर्मियों के द्वारा उसे घेर लिया गया, उसके बेटे के एनकांउटर से जुड़े सवाल पूछे जाने लगे, बेटे की मौत पर उससे प्रतिक्रिया मांगी जाने लगी. बेटे के गम में डूबा अतीक पत्रकारों को अपना पक्ष रख, अपने मानसिक संताप को कम करने की कोशिश कर रहा था, तभी पत्रकारिता का नाकाब पहने संगठित अपराधियों ने उसे गोलियों से भून दिया, अतीक और उसके भाई अशरफ को गिरते ही अपराधी टर्न इन पत्रकारों के द्वारा बेहद सहज भाव से अपने आप को पुलिस के सामने सरेंडर भी कर दिया गया. मजेदार बात यह रही है कि भारी सुरक्षा के दावों के बीच भी अतीक के सुरक्षाकर्मियों के द्वारा एक गोली भी नहीं चलाई गयी, सब कुछ अपने स्वाभाविक रुप से अंजाम दिया जाता रहा. जैसे सबको इसकी अंतिम परिणति का ज्ञान हो.
पत्रकारिता की साख पर एक काला धब्बा
अतीक के सफाये के साथ ही अतीक के काले अध्याय की समाप्ति हो गयी, अतीक को उसके अंतिम अंजाम तक पहुंचा दिया गया, लेकिन उसकी मौत के साथ ही पत्रकारिता की साख पर एक काला धब्बा लग गया. क्या इस हादसे के बाद भी पत्रकारों पर विश्वास कायम रहेगा? क्या इस हादसे के बाद पत्रकारिता की जर्जर साख पर एक और हमला नहीं हुआ है? क्या अब पत्रकारों के माइक को AK47 को नहीं समझा जायेगा? क्या अब पहली नजर में हर पत्रकार को एक अपराधी के बतौर नहीं देखा जायेगा? क्या अब किसी पत्रकार को बुलाने के पहले लोगों की आत्मा नहीं कांपेगी? क्या एक पत्रकार को सामने देख हमारे जेहन में एक हत्यारे का ख्याल नहीं आयेगा?
कितने पत्रकारों को है पत्रकारिता से सरोकार?
यहां सवाल यह नहीं है कि हत्या किसकी हुई है, सवाल यह है कि हत्यारे किस वेश में भीड़ का हिस्सा बने थें, और सवाल यह भी कि हर पेशे की तरह मीडिया कर्मियों के लिए भी कोई नियामक होनी चाहिए या नहीं? या जो नियामक हैं वह कितने प्रभावकारी है? क्या यह आज की एक कटू सच्चाई नहीं है कि हर ऐरा गैरा के पास किसी ना किसी चैनल का माइक है, क्या यह कटू सत्य नहीं है कि पत्रकारों की इस कथित भीड़ में 95 फीसदी पत्रकारों का कम से कम पत्रकारिता से कोई सरोकार नहीं है? हां, पत्रकारिता से इतर हट उनके सरोकरों की लम्बी लिस्ट है. जिसकी चर्चा अब आम लोगों के बीच भी होने लगी है. पत्रकारिता का संकट यही है.
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