Ranchi-आज जैसे ही आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो ने गिरिडीह से वर्तमान सांसद चन्द्रप्रकाश चौधरी को एक बार फिर से चुनावी अखाड़े में उतराने का एलान किया, 2019 के लोकसभा चुनाव में गिरिडीह की गलियों में गुंजने वाला “केला ही कमल है’ की याद ताजा हो गयी. दरअसल कुर्मी -महतो मतदाताओं की बहुलता के बावजूद गिरिडीह में आजसू को कभी भी सफलता नहीं मिली. सफलता तो दूर की बात है, वह तो मुख्य मुकाबले में भी खड़ी नजर नहीं आयी. 2014 में आजसू ने इस सीट से उमेश चन्द्र महतो को मैदान में उतारा था, बावजूद इसके कुर्मी मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा कमल के साथ ही रहा, महज 55 हजार मतों के साथ उमेश चन्द्र चौथे स्थान पर खड़े नजर आयें और रवीन्द्र कुमार पांडे बेहद आसानी के साथ पांचवी बार संसद पहुंचने में कामयाब रहें. यानि कुर्मी महतो की पार्टी होने का तमगा के बावजूद गिरिडीह संसदीय सीट पर आजसू को कुर्मी मतदाताओं का साथ नहीं मिला. कुर्मी मतदाता या तो झामुमो के साथ खड़े रहें या फिर कमल के साथ. और इसका कारण भी बेहद साफ था, गिरिडीह में झामुमो के पास मथुरा महतो और टेकलाल महतो के जैसा कद्दावर चेहरा था, उस चेहरे की तुलना में आजसू के पास कोई चेहरा नहीं था. और इसी कमी को दूर करने के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में केला ही कमल का नारा लगाया गया था, यानि कुर्मी कुड़मी महतो के साथ ही भाजपा के कोर वोटरों की जुगलबंदी और यह नारा ना सिर्फ कामयाब हुआ, बल्कि इस नारे की गुंज में टाईगर जगरनाथ जैसे कुर्मी चेहरो को मात खानी पड़ी, मथुरा महतो और जगरनाथ महतो जैसे स्थानीय और बेहद दमदार कुर्मी चेहरे के बावजूद रामगढ़ से चन्द्रप्रकाश चौधरी ने केला के साथ कमल खिला दिया.
केला और कमल के बीच दीवार की खबर
लेकिन क्या इस बार भी “केला ही कमल है” का जादू चलने वाला है या फिर केले और कमल के रिश्तों के बीच कोई दीवार खड़ी हो गयी है. गिरिडीह संसदीय सीट पर नजर रखने वाले स्थानीय पत्रकारों की मानों तो इस बार चन्द्र प्रकाश चौघरी की राह मुश्किल नजर आ रही है, और उसका कारण है, भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच पसरी नाराजगी. दावा किया जा रहा है कि अब्बल तो पूरे पांच वर्ष तक चन्द्रप्रकाश चौधरी गिरिडीह से दूर रहें, और यदि कभी जाना भी हुआ, तो वह आजसू कार्यकर्ताओं से घीरे रहे. जिसके कारण भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच नाराजगी पसरती रही. अब यही नाराजगी सामने आ रही है. हालांकि भाजपा नेताओं की पूरी कोशिश इस नाराजगी को दूर करने की है, लेकिन चन्द्र प्रकाश की राह में एक बड़ा रोड़ा टाईगर जयराम नजर आने लगे हैं. भाषा आन्दोलन से सियासत के अखाड़े में छलांग लगाने वाले जयराम की इंट्री के बाद भाजपा आजसू ही हलकान-परेशान नहीं है, झामुमो के सामने भी मुसीबत खड़ी होती नजर आ रही है. दावा किया जाता है कि युवाओं के बीच आज के दिन टाईगर जयराम का क्रेज है, और हर गुजरते दिन के साथ वह और भी आगे बढ़ता दिख रहा है.
जगरनाथ महतो की मौत से झामुमो की बढ़ी परेशानी
एक तरफ भाजपा आजसू की परेशानी कार्यकर्ताओं के बीच की नाराजगी है तो झामुमो की चुनौती झारखंडी टाईगर के रुप में मशहूर जगरनाथ की मौत से पैदा सियासी सन्नाटा है. हालांकि अभी भी झामुमो के पास मथुरा महतो जैसा एक मजबूत कुर्मी चेहरा जरुर है. लेकिन बदली सियासी परिस्थितियों में युवा मतदाताओं के बीच मथुरा महतो का क्रेज दिखलायी नहीं पड़ रहा, इस हालत में झामुमो के रणनीतिकारों को आज जगरनाथ महतो की कमी बेशक खल रही होगी. हालांकि मथुरा महतो ताल ठोंकने की बात जरुर कर रहे हैं, लेकिन देखना होगा कि वह कुर्मी मतदाताओं के बीच कितनी बड़ी सेंधमारी करने में सफल रहते हैं. लेकिन इतना तय है कि इस बार यदि मथुरा महतो की इंट्री होती है, तो इस बार गिरिडीह में तीन कुर्मी स्टालवार्ट के बीच बेहद रोचक मुकाबला देखने को मिलेगा.
क्या है सामाजिक और सियासी समीकरण
यहां याद रहे कि गिरिडीह लोकसभा में गिरिडीह विधान सभा से झामुमो का सुदिव्य कुमार सोनू, डुमरी विधान सभा से झामुमो की बेबी देवी, गोमिया से आजसू के लम्बोदर महतो, बेरमो से कांग्रेस का कुमार जयमंगल, टुंडी के झामुमो का मथुरा महतो और बाधमारा से धनबाद लोकसभा से ताल ठोक रहे भाजपा का ढुल्लू महतो हैं. इस प्रकार कुल छह विधान सभा में आज इंडिया गठबंधन के पास चार और एनडीए के पास विधान सभा की कुल दो सीटें है. जीत के हिसाब से अब तक इस सीट पर झामुमो कुल तीन बार और कांग्रेस चार बार विजय पताका फहरा चुकी है, जबकि भाजपा छह बार और आजसू एक बार जीत हासिल करने में कामयाब रही है. यदि सामाजिक समीकरण की बात करें तो एक आकलन के अनुसार गिरिडीह संसदीय सीट पर अल्पसंख्यक 17 फीसदी, एसी-11 फीसदी, एसटी 15 फीसदी, महतो-15 फीसदी, मांझी 4 फीसदी है. इसमें अल्पसंख्यक और आदिवासी समाज को झामुमो का कोर वोटर माना जाता है. जिनकी कुल हिस्सेदारी करीबन 32 फीसदी की होती है, इस हालत में सत्ता की चाबी 11 फीसदी वाले अनुसूचित जाति, 15 फीसदी कुड़मी मतदाताओं के साथ ही दूसरी पिछड़ी जातियों के हाथ नजर आती है और यदि यह समीकरण काम जाता है तो मथुरा महतो की राह खुल सकती है. वहीं कुछ सियासी जानकारों का यह दावा भी है कि यदि जयराम कुर्मी मतदाताओं में सेंधमारी तक ही सीमित रहते हैं तो इसका लाभ झामुमो को होगा, लेकिन यदि तमाम सामाजिक समूहों के बीच उनका जलबा चल निकलता है तो बाजी जयराम के हाथ भी जा सकती है. अब देखना होगा कि इस टसल के बीच केला और कमल की हालत क्या होती है? इस बार हालात मुश्किल जरुर नजर आ रहा है, लेकिन चुनावी समर में हार जीत का समीकरण अंतिम क्षण तक बदलता रहता है, और भाजपा इसका आशा कर सकती है.
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