पटना(PATNA): अच्छी चमचमाती सड़कें किसी भी राज्य के विकास का एक पैमाना है, सड़कों के जाल से किसी भी राज्य की आर्थिक सेहत का आकलन किया जा जाता है, लेकिन तब क्या किया जाय, जब इन चमचमाती सड़कों के लिए सरकार के द्वारा समाज के सबसे वंचित वर्ग के हितों की बलि चढ़ा दी जाय और यह स्थिति तब हो जब राज्य में कथित रुप से सामाजिक न्याय की शक्तियों की सरकार हो.
पिछले सात वर्षों से बंद है दलित छात्रों की छात्रवृति
लेकिन बिहार की राजनीति में यह सब कुछ संभव होता दिख रहा है, पिछले सात वर्षों से राज्य में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों की पोस्ट-मैट्रिक स्कॉलरशिप बंद है. 15 फरवरी को पटना हाईकोर्ट में राज्य सरकार के द्वारा एक हलफनामा दायर कर बताया है कि इसका कारण राज्य सरकार के पास धन की कमी है.
60 फीसदी केन्द्र और 40 फीसदी राशि राज्य सरकार देती है
यहां बता दें कि यह हालत तब है कि जब इस छात्रवृति के लिए 60 फीसदी राशि केन्द्र सरकार और 40 फीसदी राशि राज्य सरकार देती है. इस छात्रवृति का इस्तेमाल कर 2.5 लाख रुपये प्रति वर्ष तक की आय वाले दलित परिवारों के होनहार छात्र प्रोफेशनल, टेक्निकल, मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट और पोस्ट ग्रेजुएट के विभिन्न कोर्स पूरा करते हैं. इस योजना से इन वंचित वर्ग के छात्रों का सपना साकार होता है.
कहां गया एसटी-एससी सब प्लान का पैसा
अब सवाल यह उठता है कि इन दलित छात्रों को छात्रवृति तो अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति सब प्लान के फंड से मिलता है, तो यह राशि कहां चली गई, क्या राज्य सरकार के द्वारा इस राशि को डायवर्ट कर किसी और मद में खर्च कर दिया गया. उसका जवाब है हां, राज्य सरकार ने एसटी-एसी सब प्लान का पूरा पैसा डायवर्ट कर पुल-पुलिया और चमचमाती सड़कों के निर्माण में लगा दिया.
2018 की कैग की रिपोर्ट से खुलासा
2018-19 की कैग रिपोर्ट बताती है कि राज्य ने इस राशि को डायवर्ट कर बिजली विभाग, विभिन्न सड़क परियोजनाओं, तटबंधों का निर्माण, बाढ़ नियंत्रण के विभिन्न परियोजनाओं में लगा दिया. खुद बिहार सरकार भी कैग की इस रिपोर्ट से सहमत है.
लेकिन क्या राज्य सरकार ने इस योजना को बंद करने से पहले केन्द्रीय एसटी-एससी मंत्रालय और उसके राष्ट्रीय पैनल से सहमति ली, तो इसका जवाब है नहीं, राज्य सरकार का मानना है वित्तीय मामले में उनसे परामर्श की जरुरत ही नहीं थी.
पटना हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर
इसी मामले को दिसंबर 2022 में समस्तीपुर निवासी राजीव कुमार ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर सरकार से जवाब की मांग की है, जिसकी सुनवाई अब 24 मार्च को होनी है. इसके पहले राज्य सरकार ने एक हलफनामा दायर हाईकोर्ट को यह जानकारी दी है कि राज्य सरकार की ओर से इन छात्रों के कल्याण के लिए क्रेडिट कार्ड योजना के तहत कम ऋण दर शिक्षा ऋण प्रदान कर रही है. लेकिन इस हलफनामें में कहीं भी किसी छात्रवृति योजना का जिक्र नहीं है.
एससी सब प्लान का पैसे डायवर्ट कर दलित छात्रों को बैंक से ऋण लेने की दी जा रही सलाह
साफ है कि राज्य सरकार वंचित वर्ग के इन छात्रों को बैंक के भरोसे शिक्षा ग्रहण करने की सलाह दे रही है, एक जनकल्याणकारी सरकार में इन छात्रों को अपनी शिक्षा के लिए खुद ही व्यवस्था करने को कहा जा रहा है, दलित छात्रों को बैंक के विभिन्न योजनाओं की जानकारी दी जा रही है. लेकिन छात्रों की मांग तो छात्रवृति की है, ना कि बैंकों से दिया जाने वाला ऋण की.
मंत्री संतोष कुमार सुमन के पास है अनुसूचित जाति कल्याण विभाग
और यह हालत तब है जब अनुसूचित जाति कल्याण मंत्रालय हम संस्थापक और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के पुत्र संतोष कुमार सुमन के पास है, जीतन राम मांझी इन दिनों पूरे बिहार में गरीब सम्पर्क यात्रा निकाल कर गरीबों से संवाद कायम करने का दावा कर रहे हैं, इसी गरीब संपर्क यात्रा में उनके द्वारा अपने बेटे संतोष सुमन को बिहार का सबसे होनहार नौजवान बताया जा रहा है, दावा यह भी किया जा रहा है कि वह समाज के सबसे वंचित वर्गों की राजनीति करते हैं, लेकिन जितनी शिद्दत के साथ जीतन राम मांझी अपने बेटे के भविष्य के लिए चिंतित है, यदि उतनी ही चिंता इन दलित छात्रों के प्रति भी होती तो आज यह बिहार की राजनीति में सबसे बड़ा मुद्दा होता.
अपनी जवाब में फंसती नजर आ रही है सरकार
जानकारों का कहना है कि राज्य सरकार खुद ही अपनी जवाब में फंसती नजर आ रही है. राज्य सरकार की ओर से पहले इसका कारण पीएमएस पोर्टल में तकनीकी खराबी को बताया गया, अब फंड की कमी का रोना रोया जा रहा है, हालांकि वित्त विभाग के अधिकारियों ने इस मामले में कुछ भी बोलने से इंकार कर रहे हैं.
जमीन बंधक रखने के लिए नहीं है दलित छात्रों के पास जमीन का टुकड़ा
चाहे जो लेकिन बिहार के ये दलित छात्र फिलहाल अपनी पढ़ाई लिखाई के लिए जमीन बंधक रखने को मजबूर है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उनके पास जमीन का वह टुकड़ा भी नहीं है, जिसके बंधक रख कर वह अपनी पढ़ाई करें, फिर यह सवाल उठना तो लाजमी है कि आखिर किस आधार पर इन सत्तासीन राजनीतिक दलों के द्वारा सामाजिक न्याय का ढिंढोरा पीटा जाता है. बात-बात में दलित, पिछड़ा और पसमांदा समाज की राजनीति के दावे किये जाते हैं. उनकी कथनी और करनी का इस विरोधाभास को समझने के लिए किसी और पैमाने की जरुरत नहीं है.
रिपोर्ट: देवेन्द्र कुमार
4+