टीएनपी डेस्क (Tnp desk):-‘’ठाकुर का कुआं” कविता ओमप्रकाश वाल्मिकी ने लिखी थी. वो खुद दलित थे, लेकिन, उस दौरान समाज में फैली जातियता के जहर और ऊंच-नीच के संदर्भ में लिखी गई थी. आरजेडी से राज्यसभा सांसद मनोज झा ने महिला आरक्षण बिल के दौरान इस कविता को पढ़ा था और अपने अंदर के ठाकुर को मारने की बात कही थी. मनोज झा ने तो बड़ी शालनीता और शांति के साथ वाल्मिकी जी की कविता पढ़ डाली. उन्हें ये न तो भान था औऱ न ऐसा सपने में भी सोचा होगा कि, एक खामोशी के बाद बवंडर आयेगी और इस आंधी में सभी उन्हें ही उड़ाने की कवायद में होंगे. यहां सवाल ये भी पनपता है कि संसद में ये कविता पढ़ने के करीब एक हफ्ते बाद यकायक तूफान क्यो आ गया. बिहार के राजपूत नेता मनोज झा पर ऐसे भड़के औऱ चढ़ गये की, राजनीति से इतर जात-बिरादरी की जंग मानो छिड़ गई. सबसे पहले आनंद मोहन के बेटे और आरजेडी से शिवहर विधायक चेतन आनंद ने आगबबूला होकर हल्ला बोला. इस़ आगाज के बाद तो फिर मनोज झा के खिलाफ बयानबाजियों की ऐसी बौझार और तोहमते लगी की, फिंजा में गर्माहट लाकर आग लगा दी. यहां कोई सियासी पार्टी एक दूसरे के खिलाफ लानत-मलामत नहीं कर रही थी. बल्कि अलग-अलग पार्टियों में शामिल ठाकुर नेता मनोज झा पर हमलावर होकर नाराजगी का इजहार कर रहे थे. पूर्व सांसद आनंद मोहन ने जीभ उतारकर सदन में उछालने की धमकी दी, तो बीजेपी विधायक नीरज बबलू ने पटक-पटक कर मारने की बात तक कह डाली. तो किसी ने गर्दन धड़ से अलग करने , तो किसी ने माफी मांगने के लिए मनोज झा को बोल डाला.
‘’हम सबके अंदर एक ठाकुर है …’’
21 सितंबर को सदन में मनोज झा ने ‘’ठाकुर का कुआं’’ कविता पढ़ी, तो संसद में कहा था कि यह कविता किसी जाति विशेष के लिए नहीं है. और इसे एक प्रतिक के रुप में समझना चाहिए, क्योंकि हम सबके अंदर एक ठाकुर है. मनोज झा की इस बात से तो साफ है कि उनका इरादा ठाकुरों को भावना को भड़काना औऱ ठेस पहुंचाना नहीं लगता था. इसके बावजूद आखिर इतनी नाराजगी, बवाल और गुस्सा क्यों देखी जा रही है. हालांकि, लालू यादव और जेडीयू के ललन सिंह ने मनोज झा के साथ खड़े दिखाई पड़े और उनका बचाव किया. लालू ने झा को विद्वान व्यक्ति बताया और उनकी बात को सही ठहराया. तो ललन सिंह ने साफ किया कि उनका भाषण जाति विशेष के लिए नहीं था. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मनोज झा के समर्थन में शिवानंद तिवारी और जीतन राम मांझी भी सामने आए. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम ने कहा कि जो लोग उनके विरोध में है, वो जातियों के धुर्वीकरण की राजनीति कर रहे हैं.
क्या ये जातियों के धुर्वीकरण की सियासत है ?
माना जाता है कि बिहार की राजनीति में राजपूत नेता काफी प्रभावशाली औऱ अपनी अच्छी-खासी हैसियत रखते हैं. जहां तक बिहार में अगड़ी जाति के वोटर्स का सवाल है, तो करीब पांच फीसदी राजपूत मतदाता है, तो छह फीसदी भूमिहार औऱ तीन प्रतिशत ब्राह्म्ण वोटर्स है. जबकि, एक परशेंट कायस्थ है. बेशक राज्य में अगड़ी जातियों की संख्या कम है, लेकिन इसी पर जमकर सियासी रोटी सेंकी जा रही है. ठाकुर नेताओं का प्रभाव और पकड़ हर पार्टी में हैं. राष्ट्रीय जनता दल पिछड़ी जातियों को समेटकर ही राजनीति करती है. लेकिन, उनके बिहार प्रदेश के अध्यक्ष जगदानंद सिंह राजपूत जाति से ही आते हैं. बिहार के आमूमन सभी दल में ठाकुर नेताओं की पैठ है.
बिहार में 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में 28 राजपूत विधायक जीतकर आये थे, जिसमे एनडीए से जीतने वालों की संख्या ज्यादा थी. बिहार में 40 विधानसभा सीटों और आठ लोकसभा सीटों पर राजपूत मतदाताओं का अच्छा-खासा असर औऱ दबदबा माना जाता है. राज्य में सहरसा, वैशाली, औरंगाबाद, शिवहर और आसपास के इलाकों में राजपूतों की अच्छी खासी तादाद और इनका अच्छा असर माना जाता है.
असल मुद्दे गायब !
लोकसभा चुनाव दहलीज पर है, अचानक ‘’ठाकुर का कुआं’’ कविता पाठ के बाद यकायक फिंजा में असली मुद्दे को भटकाकर राजपूतों को भड़कना भी सवाल खड़े कर रहा है. देखा जाए तो असल मुद्दा महंगाई, बेरोजगारी, रोजगार औऱ भ्रष्टाचार के है. लेकिन, अभी ये गायब और बेपटरी हो गये हैं. हालांकि, ये सच है कि जाति की राजनीति बिहार में शुरु से ही होती आई है. ये कोई नई नहीं है, चाहे जमाना किसी का भी हो.
दूसरी नजर से देखे, तो हर कोई अपनी सियासी जमीन को उर्वरा रखने के लिए कोई न कोई तुरुप का इक्का चलता ही है. लेकिन, बिहार के जातिय समीकरण को समझे औऱ इसकी नब्ज को टटोले तो, जो आंकड़े निकलकर सामने आते हैं. वो इस बात की तस्दीक करते हैं, कि राज्य के सियासत में दलित-पिछड़े वोटरों का सबसे ज्यादा असर है. अगर ऐसा नहीं होता, तो पिछले तीन दशक से ज्यादा समय तक बिहार की सल्तनत पर राज लालू, राबड़ी, नीतीश और कुछ महीने को लिए जीतन राम मांझी ने ही किया. इनके अलावा कुर्सी किसी को नही मिली.
आरजेडी के खिलाफ लगातार लड़ने वाली भारतीय जनता पार्टी हमेशा एक सहयोगी के किरदार में ही नजर आई. कभी उनकी पार्टी का कोई न तो मुख्यमंत्री बना औऱ न ही अकेले सरकार ही बना सकी. बिहार में बीजेपी का वजूद तो दिखता है. लेकिन, बदकिस्मती भी चिपकी रहती है. भारतीय जानता पार्टी पर अगड़ी जातियों की पार्टी का आरोप लगता है. जिसके चलते भी उसकी विवशता झलक जाती है.
खैर, ‘’ठाकुर का कुआं” कविता पाठ से किसे फायदा और नुकसान होगा. ये तो वक्त तय करेगा. फिलहाल, बिहार की सियासत में बीजेपी,जेडीयू,आरजेडी के बीच होने वाली तकरार और बयानबाजियों से हटकर जातियता की जंग देखने को मिल रही है. जो कितने दिनों तक सियासी बिसात पर टिकी रहेगी, ये देखना दिलचस्प होगा.
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