पटना(PATNA)- जब देश में चारों तरफ निराशा घर करने लगता है, उम्मीदों का दीया बूझने लगता है, अंधेरा घनिभूत होने लगता है, चेहरे मूर्छाने लगते हैं, चेहरे पर संताप और आंखों में मुर्दानगी छाने लगती है, तब बिहार सामने आता है, देश को राह दिखाता है. यह बिहार है, बिहारियों की डिक्शनरी में असंभव शब्द नहीं होता, आप कह सकते हैं कि असंभव को संभव में बदलने की कला का नाम ही बिहारी है.
यह महज दावे नहीं है, इतिहास इसका गवाह
यह महज दावे नहीं है, इतिहास इसका गवाह है, याद कीजिये, 1975-77 का वह दौर, जब पूरे देश में इमरजेंसी लाद दी गयी थी, तब भी उस इमरजेंसी को देश सुधारने की दवा बताने वालों की कमी नहीं थी, उस अंधरी रात में भी इंदिरा गांधी को ‘आयरन लेडी’ मानने वालों की जमात खड़ी थी, साहब, अंध भक्ति 2014 के बाद की उपज नहीं है, समाज का एक हिस्सा सदियों से इससे ग्रस्त रहा है, लेकिन यह तो बिहार है साहब, यहां तो हर मर्ज की दवा मिलती है, जिसकी दवा नहीं होती, उसकी खोज चुटिकयों में कर ली जाती है.
बिहार की धरती में हर दिन एक नुतन प्रयोग चलता रहता है, तब इसी बिहार की धरती से लोकनायक जयप्रकाश ने सम्पूर्ण क्रांति की हुंकार लगायी थी, इसी बिहार की धरती से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने ‘सिंहासन खाली करो की जनता आती है’ का सिंहनाद किया था, बिहार से गली-कुचों में पागलों की जमात निकल पड़ी थी. आज सत्ता पक्ष और विपक्ष में तबके कई ‘पागल’ भरे पड़े हैं. हालांकि उनमें से कईयों का ‘पागलपन’ अब मंद पड़ चुका है, या यों कहें कि अब वे ‘सप्त क्रांति’ नहीं ‘सप्त बीमारी’ का शिकार बन चुके हैं. लेकिन तब इन पागलों ने इमरजेंसी की उस काली रात में उम्मीद का दीया जलाया था और थक हार कर उस आयरन लेडी को इमरजेंसी वापस लेनी पड़ी थी. जिसके बाद चुनाव हुए और इंदिरा सरकार की विदाई हुई
लेकिन कहानी खत्म यहीं नहीं होती
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती साहब, जब इंदिरा गांधी की विदाई के बाद जनता पार्टी की सरकार आयी, तब उनके नेताओं की छीना-झपटी को देख कर इसी बिहार की धरती से “आधी रोटी खायेंगे –इंदिरा को वापस लायेंगे” का नारा भी लगा और इंदिरा गांधी की सत्ता में शानदार पुनर्वापसी हुई. दोनों ही बार पहाड़ के समान दिखने वाले इस चुनौती को बिहार ने अपने सीने पर झेला, और उसे मुकाम तक पहुंचाया.
बिहार आज फिर से उसी मुकाम पर खड़ा है
आज फिर से बिहार उसी मुकाम पर खड़ा है, एक बार फिर से बिहार में सिंहनाद हो रहा है, मोदी सत्ता के खिलाफ गर्जना हो रही है, एक मांद में 17 शेर इक्कठे बैठे हैं. जब माना जा रहा था कि इन्हे एक साथ बिठाना तराजु पर मेंढ़कों को तौलने के समान है, लेकिन एक बार फिर से एक बिहारी नीतीश कुमार ने इस असंभव को संभव में बदल दिया. यों ही नहीं नीतीश कुमार को उस्तादों का उस्ताद माना जाता है, राजनीति का चाणक्य कहा जाता है. अब इस बैठक में क्या निकलता है, आज जब इसकी रुपरेखा सावर्जनिक की जायेगी, निश्चित रुप से उन तमाम प्रश्नों पर विराम लग जायेगा, जिसे बड़े ही सुनियोजित तरीके से सत्ता पक्ष के द्वारा उठाया जा रहा है, तब तक धैर्य बना कर इन शेरों की दहाड़ का इंतजार करना होगा.
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