पटना(PATNA)- काफी लम्बे अर्से बाद करीबन तीस दलों के साथ आज दिल्ली में एनडीए की बैठक है. एक अकेला ही काफी है का राग अलापने वाले पीएम मोदी नौ बरसों की अपनी केन्द्रीय राजनीति में पहली बार इस तरह की बैठक में शामिल होने जा रहे हैं, केन्द्र की राजनीति में उनके अवतरण के बाद से ही अटल आडवाणी की राजनीति का आधार स्तम्भ रहा एनडीए दम तोड़ता रहा, एक एक कर उसके सभी साथी निकलते गयें. अभी एनडीए का प्रमुख चेहरा माने जाने वाले जदयू, अकालीदल और शिव सेना उससे दूर खड़ी है, हालांकि अब तक एनडीए से दूर रहकर राजनीति के हाशिये पर खड़ी नजर आने वाली चन्द्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी को एक बार फिर से इसका हिस्सा बनाया गया है.
कभी अकेला चलो की राग अलापने वाली भाजपा को क्षेत्रीय दलों की जरुरत क्यों
लेकिन भाजपा की इस कवायद से यह सवाल राजनीति के केन्द्र में आ चुका है कि आखिर भाजपा को अचानक से इन क्षेत्रीय दलों की आवश्यक्ता क्यों आ पड़ी, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में अपार बहुमत से सत्ता में वापसी के बाद भाजपा इन दलों को काफी हिकारत भरी नजरों से देख रही थी. उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा इस बात की सार्वजनिक घोषणा कर रहे थें कि अब क्षेत्रीय दलों को कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है, इनके कारण राष्ट्रीय राजनीति कमजोर होती है, और जितना जल्दी संभव को उतना जल्दी इनका अस्तित्व समाप्त होना चाहिए, लेकिन 2014 का ज्वार उतरते ही आखिर इस बात की जरुरत क्यों पड़ गयी कि भाजपा को अब इन छोटे-छोटे दलों के आगे चिरोरी करनी पड़ रही है.
2015 के विधान सभा चुनाव में भी इन दलों की संयुक्त ताकत को आजमा चुकी है भाजपा
हालत यह है कि जब वह चिराग को मनाते ही, तब उनके चाचा पशुपतिनाथ विदके नजर आने लगते हैं, चाचा भतीजे का यह विवाद एनडीए के लिए एक बड़ी समस्या बनती नजर आ रही है. जिस मुकेश सहनी की पार्टी को तोड़ कर उसके विधायकों को भाजपा ने अपनी पार्टी में विलय करवाया था, आज वैसी क्या नौबत आ पड़ी की उसे उसी मुकेश सहनी के दरवाजे पर बार-बार दस्तक देना पड़ रहा है, बावजूद उसके मुकेश सहनी अपना पासा खोलने को तैयार नहीं हैं. जिस मांझी और चिराग को साध कर वह बिहार में अपने पुराने सहयोगी रहे नीतीश के गढ़ को भेदना चाहती है, ये सारे दल तब भी उसके साथ ही जब 2015 में जदयू ने भाजपा से किनारा कर राजद के साथ विधान सभा का चुनाव लड़ा था, और इन तमाम क्षत्रपों के सहयोग के बावजूद भी वह विधान सभा में 53 का आंकड़ा पार नहीं कर सकी थी, जबकि इस बार स्थिति और भी चुनौतीपूर्ण है, पहली बात तो जिस मोदी आंधी की बात कही जा रही थी, अब वह आंधी कब की गुजर चुकी है.
कांग्रेस, जदयू, राजद के साथ वाम दलों से पार पाना भाजपा के टेढ़ी खीर
इसकी बानगी बिहार विधान सभा का 2015 का चुनाव के साथ ही कर्नाटक, बंगाल और दूसरे कई राज्यों में मिल चुकी है, दूसरी बात की तब राजद जदयू के साथ माले भी नहीं था, लेकिन इस बार के महागठबंधन में माले कांग्रेस के साथ ही तमाम दूसरे वाम दल भी शामिल है. साफ है कि प्रदेश भाजपा चाहे जितना भी दावे करे केन्द्रीय नेतृत्व को भी इस बात का भान है कि बिहार उसके लिए एक टफ टास्क है, शायद यही कारण है कि भाजपा उन सभी दलों को साधना चाहती है, जो एक भी सीट पर उसका मददगार हो सकता है, और यही कारण है कि मुकेश सहनी से लेकर पशुपतिनाथ पारस तक भाजपा को आज आंखें तरेरने स्थिति में आ खड़े हुए हैं.
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