पटना(PATNA): एक तरफ तेजस्वी नीतीश की जोड़ी बिहार में इंडिया गठबंधन के पहलवानों की सूची तैयार करने में जुट गयी है. गठबंधन का कौन सा पहलवान सियासी अखाड़े में एनडीए के पहलवान को पटकनी देगा, अन्दर-अन्दर इसका पूरा खांका खिंचा जा रहा है, उधर एनडीए भी अपने पहलवानों को तेल मालिश कर तैयार रहने को कहा है, साफ है कि दोनों ओर से करीबन-करीबन अपने-अपने पहलवानों का चयन कर लिया गया, हालांकि अंतिम समय में कुछ बदलाव किये भी जा सकते हैं, लेकिन बिहार की इस उलझी राजनीति में सबसे ज्यादा राजनीतिक उलझाव का जाप सुप्रीमो पप्पू यादव और वीआईपी सुप्रीमो मुकेश सहनी के सामने खड़ा हो गया है, आज दोनों किस खेमे के साथ है, कोई नहीं जानता, हालांकि जाप सुप्रीमो की पूरी राजनीति सामाजिक न्याय के इर्द गिर्द घुमती है, और हाल के दिनों में पप्पू यादव ने राजद सुप्रीमो लालू यादव का चरण स्पर्श कर अपनी राजनीतिक पसंद का संकेत भी दे दिया है.
कभी पप्पू यादव अपने आप को लालू का राजनीतिक वारिस बनने का सपने बून रहे थें
ध्यान रहे कि कभी पप्पू यादव को राजद सुप्रीमो लालू यादव का बेहद खास माना जाता था, यह वह दौर था, जब तेजस्वी यादव का राजनीतिक पदार्पण भी नहीं हुआ था, खुद पप्पू यादव अपने आईकॉन लालू के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थें, लेकिन जैसे-जैसे तेजप्रताप और तेजस्वी का राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ा, वह लालू से दूर होते चले गयें.
हालांकि आज भी पप्पू यादव का यह दावा है कि पिछड़ों की लड़ाई में वह हमेशा लालू के साथ खड़े रहें, लालू की आवाज को आंख मुंद कर माना, और इस लड़ाई के कारण उनकी छवि एक अपराधी की भी बन गयी, दावा तो यह भी किया जाता है कि पप्पू यादव का सपना अपने आप को लालू का राजनीतिक वारिस बनाने का था, क्योंकि उस कठीन दौर में पिछड़ों और लालू के लिए खून पसीना उन्होंने बहाया था, लाठियां उन्होंने खायी थी, लेकिन जब पूरी जमीन तैयार हो गयी, तब राजनीति के इस अखाड़े में तेजस्वी का पदार्पण होता है, और आखिरकार वह दौर भी आया जब वह अपने आईकॉन लालू से दूर जाने को विवश कर दिये गयें.
पप्पू यादव ने कभी भी तेजस्वी को अपना नेता नहीं माना
और यही कारण है कि पप्पू ने कभी भी तेजस्वी को अपना नेता नहीं माना. लेकिन इसके साथ ही पप्पू यादव ने कभी भी लालू के खिलाफ आवाज नहीं उठायी, एक अलग सियासी मोर्चा खोलते हुए भी वह बड़े गर्व के साथ लालू को अपना आईकॉन मानते रहें, लेकिन इन तीन दशकों में गंगा में काफी पानी बह चुका हैं, भले ही आज भी लालू एक आवाज हों, लेकिन सत्य यह भी है कि अब राजद की कमान उस तेजस्वी के हाथों आ चुकी है, और पप्पू यादव का भविष्य क्या होगा? इसका फैसला उसी तेजस्वी को लेना है, जिसे आज भी पप्पू यादव दिल से अपना नेता मानने को तैयार नहीं है.
मुकेश सहनी भी लालू को मानते है अपना आईकॉन
ठीक यही हाल अपने को अति पिछड़ों की आवाज मानने वाले मुकेश सहनी का भी है, यह मुकेश सहनी ही है, जो एनडीए खेमा में रहकर भी इस बात को कहने का राजनीतिक साहस रखते थें कि बिहार में अब कोई दूसरा लालू पैदा नहीं होगा, लालू उनके आदर्श है, लालू पिछड़ों दलितों और अल्पसंख्यकों की आवाज है, साफ है कि मुकेश सहनी के लिए भी लालू राजनीतिक आइकॉन है, लेकिन मुकेश सहनी की भी स्थिति यही है,
अति पिछड़ों की दीर्घकालीन राजनीति के लिए भगवा एक खतरनाक प्रयोग
पप्पू यादव की तरह वह भी तेजस्वी को अपना नेता मानने को तैयार नहीं है. लालू उनके श्रद्धेय हैं, उनके देवता है. लेकिन राजनीति की अपनी दिशा, दशा और मजबूरियां होती है. अपनी उलटबासियां होती है और हालात की मजबूरी में उन्हे लालू के सामाजवादी रास्ते से अलग दूर जा भगवा राजनीति का दामन थामना पड़ा, लेकिन इसकी कसक मुकेश सहनी को जरुर रही, और जब भाजपा ने उनकी पलटन को हड़प लिया, तब जाकर मुकेश सहनी का यह विश्वास और भी गहरा हो गया कि तेजस्वी से चाहे जितनी भी लड़ाई हो, मनुमुटाव हो, राजनीतिक टकराहट हो, लेकिन अति पिछड़ों का रास्ता भगवा राजनीति की ओर मोड़ना अति पिछड़ों की दीर्घकालीन राजनीति के लिए खतरनाक प्रयोग होगा.
इनका अगला रास्ता क्या होगा? भविष्यवाणी करना जोखिमपूर्ण
तब क्या यह माना जाय कि बिहार की राजनीति के ये दोनों सितारे आखिरकार इंडिया गठबंधन के साथ खड़े होंगे, अभी इस बारे में कुछ भी कहना राजनीतिक रुप से जोखिमपूर्ण होगा, हालांकि पप्पू यादव के बारे में साफ रुप से कहा जा सकता है कि वह भगवा राजनीति का हिस्सा नहीं बनेंगे, यह उनके लिए राजनीतिक रुप से आत्महत्या के समान होगा. बहुत संभव है कि इंडिया गठबंधन के साथ किसी तालमेल के अभाव में वह चार से पांच सीटों पर अपना उम्मीवार उतार इंडिया गठबंधन के सामने राजनीतिक मुसीबत पैदा करे दें, हालांकि उनकी अंतिम कोशिश अपने आप को इंडिया गठबंधन में समायोजित करने की होगी, लेकिन यह सब कुछ तेजस्वी यादव के सूझबूछ और राजनीतिक दूरदर्शिता पर निर्भर करेगा.
लेकिन मुकेश सहनी आसानी से भाजपा के साथ खड़ें हो सकते हैं, हालांकि उनकी ओर से भी अभी महागठबंधन के दरवाजे बंद नहीं किये गये हैं, और माना जा रहा है कि वह दोनों ही खेमों के साथ सौदेबाजी में है, लेकिन इतना साफ है कि इस बार वह अपने चुनाव चिह्न पर किसी और का उम्मीदवार स्वीकारने की भूल नहीं करेंगे, इस बार चुनाव चिह्न भी उनका होगा और उम्मीवार भी.
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