Ranchi- जिस सरना धर्म कोड की मांग को लेकर पूरे झारखंड में आदिवासी समूहों के बीच गोलबंदी तेज रही है, हर दिन विभिन्न जनजातीय समूहों के द्वारा रैलियों से लेकर धरना-प्रर्दशन का आयोजन किया जा रहा है. आजसू से लेकर झामुमो तक इस मांग का समर्थन करते नजर आ रहे हैं. और तो और हेमंत सरकार ने तो वाज्प्ते इस मामले में विधान सभा से प्रस्ताव पास कर केन्द्र सरकार को भेजा है. बल्कि इससे भी आगे बढ़कर आजसू झामुमो में इसका श्रेय लेने की होड़ मची है, जनजातीय आबादी के बीच झामुमो इसे अपना मास्टर कार्ड मान रही है. उसी सरना धर्म कोड को बड़ी साफगोई से पूर्व सीएम अर्जुन मुंडा ने विभिन्न आदिवासी समूहों को विभाजित करने का टूल करार दिया है.
हर जनजाति समूदाय की अपनी विशिष्ट पंरपरा
इस चिर प्रतीक्षित और बहुचर्चित मांग को सिरे से खारीज करते हुए अर्जून मुंडा ने कहा है कि आदिवासीयों की पहचान उनकी धर्म से नहीं, बल्कि उनकी पंरपरा से होती है. हर आदिवासी समूदाय की अपनी विशिष्ट पंरपरा है, और इस परंपरा को किसी खास धर्म से जोड़ना उचित नहीं. पूरे देश में आज 700 से अधिक जनजातियां निवास करती हैं, जिनकी अपनी-अपनी परंपराएं हैं, इसकी मांग करने वालों की मंशा ही संदेहास्पद है.
अर्जून के बयान के बाद लोबिन ने खुला मोर्चा
पूर्व सीएम का यह बयान सामने आते ही झारखंड की राजनीति में सरगर्मी तेज हो गई, इसके पक्ष विपक्ष में बयान आने शुरु हो गयें, लेकिन सबसे तीखी प्रतिक्रिया झामुमो विधायक आदिवासी-मूलवासियों के फायर ब्रांड नेता लोबिन हेम्ब्रम की ओर आयी, अर्जून पर हमले की शुरुआत करते हुए लोबिन ने कहा तंज भरे लहजे में कहा कि लगता है कि झामुमो में रहते हुए अर्जून मुंडा को जो संस्कार और राजनीतिक दीक्षा थी, अब उसका जनाजा निकल चुका है, अर्जून मुंडा पूरी तरह से आरएसएस के रंग में रंग चुके हैं, सरना धर्म कोड जैसे जीवन मरण के प्रश्न पर भी वह अब आरएसएस की भाषा बोल रहे हैं और उसी के एजेंडों को आगे बढ़ा रहे हैं. यह विशाल जनजातीय आबादी को हिन्दू धर्म का कॉलम अपने के लिए मजबूर करने का आरएसएस षडयंत्र है.
65 वर्षों से उठ रही है सरना धर्म कोड की मांग
ध्यान रहे कि सरना धर्म कोड की मांग कोई आज की नहीं है, करीबन 60-65 वर्षों से झारखंड और इसके निकटवर्ती राज्यों में इसकी मांग उठती रहती है. सरना धर्म पर सरना प्रार्थना सभा के राष्ट्रीय महासचिव प्रो प्रवीण उरांव ने एक किताब 'कुरुख ग्रंथ' लिखी है, उस पुस्तक में वह बताते हैं कि "सभी आदिवासी गांवों में जो पूजा स्थल होता है, उसी को सरना स्थल कहते हैं. उक्त स्थल पर दूसरे वृक्षों के साथ- साथ सखुआ का पेड़ भी होता, जिसकी पूजा की जाती है. इस पूजा स्थल को अलग-अलग आदिवासी समूहों में देशावली, जाहेर थान, और चाला टोंका कहा जाता है. सरना धर्म की सबसे अधिक चर्चा 1965 में हुई, जब कार्तिक उरांव, भिखराम भगत, तेजबहादुर भगत, राम भगत, एतो उरांव जैसे लोगों के द्वारा इसका प्रचार किया जाने लगा.
1871 से 1951 तक की जनगणना में होता था आदिवासियों के लिए अलग से कॉलम
ध्यान रहे कि सन 1871 से 1951 तक की जनगणना में जनजातीय आबादी के लिए धर्म के लिए अलग से कॉलम होता था, लेकिन आजादी के बाद 1951की जनगणना में इस कॉलम को हटा दिया गया. और ठीक इसे बाद आदिवासियों की जनसंख्या में कमी भी महसूस की जाने लगी. दावा किया जाने लगा कि कॉलम को हटाकर एक रणनीति के तहत आदिवासियों को हिन्दू धर्म का कॉलम अपनाने के लिए मजबूर कर दिया गया.
किस धर्म में कितने आदिवासी
हालांकि आरएसएस से जुड़े संगठनों के धर्मांतरण का मुद्दा भी उठाया जाता रहा है, और इस बात का दावा किया जाता रहा है कि बड़ी संख्या में आदिवासियों के द्वारा ईसाई धर्म को अपना लिया गया. और जनसंख्या में कमी की वजह यही है. वर्ष 2018 में सूचना का अधिकार कानून का प्रयोग करते हुए अधिवक्ता दिप्ती होरो ने झारखंड के गृह विभाग से एक जानकारी मांगी, उस जानकारी से यह बात सामने आयी कि झारखंड की 86 लाख जनजातीय आबादी में से सरना धर्म मानने वालों की जनसंख्या 40,12,622 लाख थी. जबकि अपने आप को हिन्दू मानने वालों की संख्या 32,45,856 थी. जबकि 13,38,175 आदिवासी अपने आप को ईशाई 18,107 मुस्लिम, 2,946-बौद्ध, 984 सिख और 381 आदिवासी पने आप को जैन मानते हैं. वहीं 25,971 आदिवासी ऐसे हैं भी जिनका किसी भी धर्म में कोई आस्था नहीं हैं.
आदिवासी समाज का मूल संकट और चुनौती
आंकडों के हिसाब से साफ है कि सबसे बड़ी संख्या में आदिवासियों के द्वारा हिन्दू धर्म को अपनाया गया है, सरना धर्म की मांग करने वालों का तर्क हैं कि इसकी वजह कुछ और नहीं, महज आदिवासियों के लिए स्वतंत्र कॉलम का नहीं होना है, जैसे ही आदिवासियों के लिए स्वतंत्र कॉलम दे दिया जायेगा, उनकी जनसंख्या में इजाफा होने लगेगा, और यही आदिवासी समाज का मूल संकट, चुनौती और समाधान है.
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