TNPDESK- जब यह खबर लिखी जा रही है, ठीक उसी वक्त राजस्थान, मध्यप्रदेश सहित छत्तीसगढ़ भाजपा कार्यालय में कार्यकर्ताओं के द्वारा जश्न मनाया जा रहा है, तीनों ही राज्यों में भाजपा भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटती दिख रही है, दूसरी तरफ कांग्रेसी कार्यालयों में गहरा सन्नाटा पसरा है. मध्यप्रदेश जहां कमलनाथ लगातार अपनी जीत का दावा कर रहे थें, कोपभवन में जाने को विवश हैं. कमलनाथ को यह समझ में नहीं आ रही कि चूक कहां हो गयी, जिस मध्यप्रदेश में पिछले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने अपना परचम लहराया था. हालांकि कमलनाथ विधायकों को साथ रखने में असफल रहें और सिंधिया के पार्टी छोड़ते ही उनके समर्थक भाजपा के साथ खड़े हो गयें, कमलनाथ को इस बात का विश्वास था कि इस बार इस गद्दारी का जनता सबक सिखायेगी, लेकिन उनकी हसरतों पर तब पानी फिर गया, जब भाजपा इस बार प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करने में कामयाब हो गयी.
छत्तीसगढ़ की हार सबसे ज्यादा हैरान करने वाला
लेकिन इससे भी कांग्रेस की अप्रत्याशित हार छत्तीसगढ़ में मिली, जहां तमाम मीडिया चैनलों और एक्जिट पॉल के दावों को झुठलाते हुए सत्ता में वापसी कर गयी. रही बात राजस्थान की तो, वहां हर कोई मान रहा था कि राजस्थान हर पांच साल में रोटी बदलने के अपने पुरानी परिपाटी के साथ ही रहेगा और अब करीबन वही होता नजर आता है. लेकिन मूल सवाल यह है कि कांग्रेस को इस भीषण हार का सामना क्यों करना पड़ा, इंडिया गठबंधन को ठंडे वस्ते में डाल कांग्रेस जिस विजय अभियान पर निकली थी, वह दम तोड़ क्यों गया. और बड़ा सवाल यह है कि यदि वास्तव में यह चुनाव इंडिया गठबंधन के बनैर तले लड़ा जाता तो क्या आज कांग्रेस को वही परिणाम देखने को मिलता, या आज मीडिया का हेडलाइन कुछ दूसरी ही होती.
किसके दवाब में स्थगित हुई थी इंडिया गठबंधन की भोपाल रैली
आज जरुरत इसी सवाल को खंगालने की है. पहला सवाल तो यह है कि इंडिया गठबंधन की जो भोपाल रैली होनी थी, उस रैली को स्थगित करने का निर्णय किसके दवाब में लिया गया था, आखिर इस रैली को स्थगित करने के पीछे मंशा क्या थी. क्या यह निर्णय कांग्रेस अघ्यक्ष खड़गे का था, या यह फैसला राहुल गांधी के द्वारा लिया गया था, या इसके पीछे कमलनाथ, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत की भूमिका थी. चूंकि यह रैली भोपाल में की जानी थी, इसलिए शक की पहली सुई कमलनाथ की ओर उठती है, दावा किया जाता है कि कमलनाथ की जिद्द पर ही इस रैली को स्थगित किया गया था, हालांकि खुद राहुल गांधी और खड़गे इसके पक्षधर थें, लेकिन कमलनाथ का दावा था कि इस रैली से उनके सॉप्ट हिन्दुत्व की छवि को नुकसान पहुंचेगा. तब कमलनाथ लगातार बाबा बागेश्वर नाथ के दरबार में हाजरी लगा रहे थें, लेकिन बाबा बागेश्वर नाथ की यह हाजीरी उन्हे सत्ता तक पहुंचाने में असफल रही, इसके विपरीत जब पिछली बार वह बाबा के चंगुल के बाहर थें, कांग्रेस भाजपा को सत्ता से बाहर करने में सफल हो गयी थी. यहां सवाल बाबा बागेश्वर नाथ का नहीं है, सवाल तो कमलनाथ की रणनीति का है. सवाल तो इस बात की है जिस रास्ते पर वह कांग्रेस को हांकना चाह रहे थें और राहुल गांधी सहित तमाम केन्द्रीय नेताओं को इंडिया गठबंधन से दूरी नसीहत दे रहे थें, उससे हासिल क्या हुआ.
मोमेंटम प्राप्त कर रहा था इंडिया गठबंधन
इसके विपरीत कांग्रेस के दूसरे खेमे का मानना था कि जिस मोमेंटम के साथ इंडिया गठबंधन रफ्तार ले रहा है, उसकी रफ्तार को रोकना घातक होगा, क्योंकि इंडिया गठबंधन की इस बैठक से मतदाताओं को राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प मिलता दिख रहा है, और इसके साथ ही जब चुनाव प्रचार के दौरान जब इंडिया गठबंधन की पूरी फौज उतरेगी तो नजारा दूसरा होगा, एक तरफ सीएम नीतीश प्रचार की बागडोर संभालते नजर आयेंगे, दूसरी और अखिलेश यादव मोर्चा संभालते नजर आयेंगे, एक तरफ चन्द्रशेखर रावण खड़ा होगा तो दूसरी ओर तेजस्वी-जयंत भाजपा पर हमलावर नजर आयेंगे, इससे मतदाताओं के बीच एक मजबूत संदेश जायेगा. और इसके साथ ही दलित पिछड़े जातियों की एक व्यापक गोलबंदी तैयारी होगी.
कमलनाथ को सत्ता की इस मलाई का बंटवारा करना पड़ता
लेकिन कमलनाथ जैसे पुराने सामंती ख्यालात वाले नेताओं को यह आईडिया पसंद नहीं था, उन्हे तो इंडिया गठबंधन की बैठक से बेवजह सत्ता में हिस्सेदारी का दवाब नजर रहा था, क्योंकि उस हालत में कांग्रेस को सपा, चन्द्रशेखर रावण और दूसरी दलों के लिए कुछ सीटों की कुर्बानी देनी होती, और इसके कारण सत्ता की मलाई दलित पिछड़ी जातियो से आने वाले क्षत्रपों के बीच बांटनी पड़ती, और कमलनाथ सरीखे कांग्रेस के पुराने नेता इस बंटवारे के एकदम खिलाफ थें, अब जब उनके हाथ से सत्ता की चिड़िया उड़ गयी, अचानक से इंडिया गठबंधन की याद आ रही है, यही कांग्रेस का दुर्भाग्य और उसकी दुर्गती का कारण है.
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