Ranchi-मध्य प्रदेश, राजस्थान और अप्रत्याशित रुप से छत्तीसगढ़ में करारी हार के बाद कांग्रेस जिस सदमे में गई थी, अब वह उससे बाहर निकलने का प्रयास करती हुई दिख रही है. दरअसल अब तक जितनी समीक्षा हुई है, हार के कारक कारणों का चीड़-फाड़ हुआ, उससे एक बात कांग्रेस को तेजी से समझ आ रही है कि इन तीनों ही राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ कोई बड़ा पॉपुलर मैंडेट नहीं था, कांग्रेस भाजपा के बीच वोटों का अंतर महज दो फीसदी का ही था, हालांकि मध्यप्रदेश में यह अंतर करीबन आठ फीसदी का था, लेकिन उसका एक बड़ा कारण चुनाव के एक दिन पहले लाडली बहन योजना की किस्त महिलाओं के खाते में पहुंचना था. जबकि तेलागंना में चन्द्रेशखर राव को उनकी एक महत्वपूर्ण योजना के लिए किस्त का भुगतान करने पर रोक लगा दी गयी थी, शायद यह रोक नहीं होती तो आज तेलांगना का चुनावी गणित भी बदला नजर आता.
दरअसल कांग्रेस के अंदर अब इसकी चर्चा तेज है कि जिस प्रकार राजस्थान में सचिन पायलेट और अशोक गहलोत के बीच सियासी रस्साकशी चलती रही, उसका असर इस चुनाव परिणाम में देखने को मिल रहा है, हालांकि अशोक गहलोत के पॉपुलर कार्यक्रमों के कारण कांग्रेस को एक सम्मानजनक स्थान भी प्राप्त हुआ. बावजूद इसके यदि यह विवाद नहीं होता तो शायद प्रदर्शन और भी बेहतर होता. कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से मिला है. और बताया जाता है कि स्थानीय क्षत्रपों पर चुनाव केन्द्रित कर कांग्रेस ने एक बड़ी भूल कर दी. और दूसरा संदेश यह है कि कांग्रेस को आज भी राज्यों के स्तर पर जनाधार वाले नेताओं की तलाश है, शायद मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पास शिवराज सिंह चौहान जैसा कोई जमीनी चेहरा नहीं था. और इसकी नुकसान उसे उठाना पड़ा, पिछले चुनाव के वक्त दिग्विजय सिंह और उनकी पत्नी ने पूरे मध्यप्रदेश की यात्रा कर एक वातावरण तैयार किया था, लेकिन इसके विपरीत कमलनाथ सिर्फ मीडिया मैनेजमेंट करते नजर आयें. चुनावी फतह के लिए एक सीमा तक मीडिया मैनेजमेंट की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन मीडिया मैनेजमेंट किसी भी कीमत पर जमीनी संघर्ष का काट नहीं होता और इस मोर्चे पर कमलनाथ बहुत दूर खड़े नजर आते हैं.
झारखंड कांग्रेस में बड़े बदलाव के आसार
अब इसी आधार पर कांग्रेस के अंदर राज्य दर राज्य जमीनी जनाधार वाले नेताओं को सामने लाने की चर्चा चल पड़ी है, और इसकी जद्द में झारखंड का भी आना तय है. यहां यह भी ध्यान रहे कि काफी लम्बे समय से झारखंड कांग्रेस में बदलाव की चर्चा होती रही है, लेकिन हर बार किसी ना किसी कारण से टाला जाता रहा है और इसके कारण कांग्रेस के अंदर रुठने-मनाने का खेल भी चलता रहता है. विधायकों की आपसी खेमाबंदी भी आम है. हर माह किसी ना किसी विधायक और मंत्री तक का पार्टी छोड़ने की चर्चा भी तेज रहती है. हालांकि प्रदेश प्रभारी और अध्यक्ष के द्वारा इसको खारिज कर चर्चाओं पर विराम लगाने की कोशिश की जाती है, लेकिन यदि हम विधायक इरफान अंसारी और उनके साथियों के द्वारा दिये जा रहे संकेतों, मंत्री बन्ना गुप्ता और रधुवर दास के बीच की दोस्ती, मंत्री बादल पत्रलेख और अश्विनी चौबे के बीच की गुफ्तगू के साथ ही विधायकों की सजती टोलियों को समझने की कोशिश करें तो झारखंड कांग्रेस के अंदर आपको एक साथ कई गुट खड़े दिखलायी देंगे, और यह सिर्फ अलग अलग खड़े ही नहीं है, बल्कि एक दूसरी की जमीन खिसकाने की तैयारी भी करते नजर आते हैं. विधायकों का रोना इस बात का है कि संगठन में जनाधारहीन नेताओं को कुछ ज्यादा ही तरजीह दी जा रही है. कुछ चेहरे तो ऐसे भी हैं जो पंचायत स्तर पर भी जीत दिलाने की स्थिति में भी नहीं हैं, लेकिन उनकी दोस्ती और पहुंच दिल्ली दरबार तक है. अब यह दिल्ली दरबार को देखना है कि वह अपने पंसीददा चेहरे को आगे 2024 को फतह करना चाहती है या जमीनी दमखम रखने वाले नेताओं को मैदान में उतारती है.
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