TNP Desk- क्या कर्नाटक की यह प्रचंड जीत कांग्रेस के लिए सिर्फ खूशखबरी लायी है, या यह अप्रत्याशित जीत कुछ अपने साथ कुछ संकट भी लाया है? क्या कर्नाटक कांग्रेस के अन्दर इस जीत के साथ ही विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच एक घोषित-अघोषित संघर्ष भी तेज हो चुका है? क्या कर्नाटक की जाति आधारित राजनीति के लिए यह मानना महज एक झलावा है कि सिद्धारमैया की ताजपोशी और डीके शिवकुमार के बीच शक्ति का संतुलन बनाकर कांग्रेस आलाकमान ने सारे कील कांटों को दूर कर दिया है? या निकट भविष्य में अभी और कई संघर्ष देखने को मिलेंगे? क्या यह संघर्ष इतना भीषण होगा कि इसका असर सिद्धारमैया सरकार की सेहत पर भी पड़ेगा? क्या इस सत्ता संघर्ष को सुलझाते-सुलझाते सिद्धारमैया इतना थक चुके होंगे कि 2024 के पहले उनकी सारी राजनीतिक उर्जा समाप्त हो चुकी होगी और इस प्रकार भाजपा की वापसी का रास्ता एक बार फिर से साफ हो जायेगा? क्या विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच सत्ता के इस संघर्ष को भाजपा सिर्फ बाहर से बैठ कर नजारा देखेगी या इसमें उसका भी कुछ योगदान होगा? ये सारे सवाल काफी टेढ़े हैं, और फिलहाल इसका कोई जवाब किसी के पास नहीं है.
आने वालों में दिनों में सत्ता का यह संघर्ष तेज हो सकता है
लेकिन जिस प्रकार कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व का पूरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच छिड़ें सत्ता के संघर्ष को सुलझाने में लगा है, और दूसरे सभी आवाजों की अनसुनी की जा रही है, उसका असर आने वाले दिनों में देखने को मिल सकता है.
करीबन एक दर्जन नेताओं को आ रहा है सीएम बनने का ख्बाब
ध्यान रहे कि कांग्रेस की इस प्रचंड जीत के साथ ही सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के अलावे करीबन एक दर्जन नेता है, जिनके सपनें आज आसमान छू रहे हैं, उन्हे यह लग रहा है कि कांग्रेस आलाकमान के द्वारा सिद्धारमैया के सर ताज सौंपने के फैसले के साथ ही उनके अरमानों का कत्ल हुआ है. उनकी आवाज की अनदेखी की गयी है, हालांकि उनके साथ कितने विधायक है, और उनकी कुव्वत क्या है, यह एक अलग चर्चा का विषय है, और यह भी एक सच्चाई है कि किसी भी लोकतांत्रिक पार्टी में विभिन्न सुरों का एक साथ बजना उसकी जीवंतता की निशानी है, इन आवाजों से यह समझा जा सकता है कि पार्टी के अन्दर सबों को अपनी-अपनी बात और अपने अपने सामाजिक समूहों की पीड़ा और महात्वाकांक्षा को सामने रखने का अधिकार है. लेकिन लोकतंत्र में भी विचार विमर्श और असहमति की भी एक सीमा होती है, और एक सीमा से ज्यादा छुट्ट कई बार घातक हो जाता है.
दलित सीएम के दावे
यहां याद दिला दें कि सिद्धारमैया की ताजपोशी के घोषणा के साथ ही कर्नाटक कांग्रेस का एक वरिष्ठ नेता और कर्नाटक में दलित राजनीति का एक प्रमुख चेहरा जी परेमश्वर ने यह कह कर सनसनी फैला दी है कि यदि गोलबंदी से ही सीएम का पद मिलता है तो मैं भी 50 विधायकों को अपने साथ खड़ा करने को तैयार हूं. और मेरी दावेदारी को इस तरह से एकबारगी खारीज कर देना उचित नहीं है. जी परमेश्वर एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन सरकार में राज्य के पहले दलित उपमुख्यमंत्री भी बने थें, वह छह बार विधायक बन रह चुके हैं, वर्ष 1989, 1999 और 2004 में मधुगिरी, 2008, 2018 और 2023 में कोराटागेरे से विधानसभा का चुनाव जीता है.
काफी लम्बी है सीएम पद के दावेदारों की संख्या
लेकिन जी परमेश्वर अकेले नहीं है, जिनके सपने में सीएम की कुर्सी दिख रही है, यह सूची और भी लम्बी है, इस सूची में कांग्रेस के सबसे बड़े लिंगायत नेता एमबी पाटिल, कृष्णा बायरे गौड़ा, शिवशंकरप्पा, रामलिंगा रेड्डी, एच के पाटिल और आर वी देशपांडे का नाम भी शामिल है, देखना होगा कि सिद्धारमैया सीएम पद के इन सभी दावेदारों को कैसे एक साथ खुश रख पाते हैं. इस सूची में सबसे अधिक उम्रदराज सीएम पद के दावेदार शमनूर शिवाशंकरप्पा हैं, जिनकी उम्र 90 के पार है, जिन्हे चलने-फिरने के लिए भी एक सहारे की जरुरत होती है, लेकिन आज भी उनका सपना कर्नाटक की राजनीति को अपने इशारों पर नचाने का है. शायद वह भाजपा में होते तो दो दशक पहले ही उनको मार्गदर्शक मंडली में भेज दिया जाता. लेकिन यह काग्रेंस है, यही कांग्रेस की ताकत भी है और कमजोरी भी.
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