रांची(RANCHI): रामगढ़ विधान सभा में कांग्रेस को मिली हार के बाद अन्दरखाने समीक्षा के नाम पर खानापूर्ति का दौर जारी है, कांग्रेस हार की समीक्षा करने के बजाय आपस में सिर फुटौवल करती कुछ ज्यादा ही नजर आ रही है. प्रदेश स्तर पर कुंडली मारे नेता हार की वास्तविक समीक्षा की बजाय, कहा जा सकता है कि प्रदेश नेतृत्व की कोशिश हार की जमीनी समीक्षा करने के बजाय आलाकमान को भरमाने में है.
हार की तीन वजह
अब तक की मिली जानकारी के अनुसार ठीक उपचुनाव के पहले बड़कागांव विधायक अम्बा प्रसाद के विधायक प्रतिनिधि की हत्या, और अम्बा प्रसाद के द्वारा हत्या के लिए राज्य की कानून व्यवस्था को जिम्मेवार बताना, महतो मतदाताओं का आजसू के पक्ष के एकजुटता और अल्पसंख्यक समुदाय की उदासीनता को इसकी बड़ी वजह बताया जा रहा है.
महंगा पड़ा कानून व्यवस्था का मुद्दा
प्रदेश नेतृत्व का मानना है कि जिस प्रकार से अम्बा प्रसाद और उनके पिता योगेन्द्र साव ने विधायक प्रतिनिधि की हत्या के राज्य सरकार को कटघरे में लिया, उससे मतदाताओं के बीच अच्छा मैसेज नहीं गया. कानून व्यवस्था को मुद्दा बनाना कांग्रेस के लिए मंहगा पड़ा. साफ है कि प्रदेश नेतृत्व की कोशिश हार का ठीकरा अम्बा प्रसाद के सिर पर फोड़ने की है.
महतो मतदाताओं का आजसू के पक्ष में एकजुटता
महतो मतदाताओं की आजसू के पक्ष में एकजुटता भी बड़ी वजह मानी जा रही है, कहा जा रहा है कि इस विधान सभा में महतो मतदाताओं की एक बड़ी आबादी है, महतो मतदाताओं ने एकजुट होकर सुनीता देवी के पक्ष में मतदान किया, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व इस तथ्य से अनजान था, क्या महतो मतदाताओं की वास्तविक संख्या की जानकारी उसके पास नहीं थी, यदि थी तो इसकी काट के क्या उपाय किये गयें. क्या कांग्रेस की ओर से किसी जुझारु महतो नेतृत्व को मैदान में उतारा गया.
क्या जगरनाथ महतो की पूरी क्षमता का उपयोग किया गया
सवाल यह भी है कि झामुमो के जगरनाथ महतो की कितनी चुनावी सभाओं का आयोजन किया गया, और यह की खुद कांग्रेस के पास कितने महतो नेतृत्वकर्ता है, यदि नहीं है, तब क्या कांग्रेस यह मान कर चलती है कि झारखंड की इतनी बड़ी आबादी को वह अपने शब्दजाल में फंसाकर उसका मत प्राप्त करती रहेगी? क्या इस उपचुनाव का एक साफ संकेत यह नहीं है कि प्रदेश स्तर पर किसी महतो नेतृत्वकर्ता को सक्रिय किया जाय? क्योंकि यदि यही स्थिति रही तो आने वाले 2024 के लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस की स्थिति तो और भी बुरी होने वाली है. जानकारों का मानना है कि वर्तमान प्रदेश नेतृत्व के बुते कांग्रेस झारखंड में कोई बड़ी लड़ाई नहीं लड़ सकती.
अल्पसंख्यक मतदाताओं की नाराजगी
इसके साथ ही अल्पसंख्यक मतदाताओं की नाराजगी को भी बड़ी बतायी जा रही है, माना जा रहा है कि रामगढ़ उपचुनाव में अल्पसंख्यक मतदाताओं ने उदासी बरती, उनके अन्दर उपचुनाव को लेकर कोई खास उत्साह नहीं था.
यहां यह याद रहे कि ठीक चुनाव परिणाम आने के बाद ही कांग्रेस विधायक इरफान अंसारी ने भी रामगढ़ उपचुनाव में अल्पसंख्यकों की उदासीनता पर सवाल खड़े किये थें, तब उन्होंने कहा था कि कांग्रेस को इस बात की तलाश करनी होगी कि मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस से दूरी क्यों बनाया, उनके अन्दर वह उत्साह देखने को क्यों नहीं मिला. सवाल यह भी है कि आलमगीर आलम को छोड़ कर किन-किन मुस्लिम चेहरों को कांग्रेस की ओर से मैदान में उतारा गया.
आदिवासी-मूलवासी की महत्ता को समझना होगा
जानकारों का मानना है कि वर्तमान प्रदेश सांगठनिक ढांचे के तहत कांग्रेस झारखंड में कोई बड़ी लड़ाई करने की स्थिति में नहीं है, कांग्रेस को अपने संगठन के अन्दर आमूलचुक बदलाव की जरुरत है और खासकर प्रदेश नेतृत्व पर किसी आदिवासी-मूलवासी को बिठाने की सख्त जरुरत है.