धनबाद (DHANBAD) : समरेश सिंह सचमुच कोयलांचल के दादा थे. सब कोई उन्हें प्यार और दुलार से दादा बुलाता था. वह भी दादा बुलाने वालों को उतना ही प्यार और दुलार देते थे. उनके संकट की घड़ी में पहाड़ की तरह खड़े हो जाते थे. धनबाद-बोकारो में ऐसे हजारों लोग मिल जाएंगे, जो इस कथन की पुष्टि करेंगे. 1977 में जब एक युवक बाघमारा विधान सभा चुनाव लड़ने के लिए सामने आया तो लोगों को भरोसा नहीं हुआ था कि यह युवक राजनीति के शिखर पर चढ़ेगा और अपने पीछे लाखों समर्थक खड़े कर लेगा. समरेश दा की अपनी अलग स्टाइल थी. धनबाद -बोकारो के लोग अब यह नहीं सुन पाएंगे कि संग्राम नहीं महासंग्राम होगा, क्या पुलिस, क्या प्रशासन सारे अधिकारी समरेश दा के आंदोलन के नाम से ही कांप जाते थे. कानून-व्यवस्था बनाए रखना उनके लिए समस्या हो जाती थी.
वेष बदलकर कार्यक्रम में हो जाते थे शामिल
पुलिस खोजती रहे और वेष बदल कर कार्यक्रम में शामिल होना, उनके लिए बहुत आसान था. सच्चाई के लिए लड़ाई को किसी भी हद तक ले जाने की उनकी क्षमता काबिलेतारीफ थी. अन्याय के खिलाफ जब उनकी आवाज उठती थी तो उनके गर्जन से सारी व्यवस्थाएं कांप जाती थी. 1977 में बाघमारा विधानसभा से वह निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीते और यहीं से शुरू हो गई उनकी राजनीतिक सफर. कहा जा सकता है कि आज भाजपा के कम से कम झारखंड में जितने भी छोटे- बड़े नेता हैं, सबने समरेश दा से राजनीति सीखी है और आगे बढ़े है.
कोयलांचल में भाजपा को खून से सींचा था
धनबाद की अगर बात करें तो भाजपा की स्थापना में उनकी बहुत बड़ी भूमिका थी. इंदर सिंह नामधारी और समरेश सिंह ने भाजपा के नींव को सींचा था. धनबाद में तो उस समय इन्हीं लोगों की ख्याति थी, प्रोफेसर निर्मल चटर्जी ,डॉ गौतम और समरेश दा, यही तीन लोग धनबाद में भाजपा का झंडा ढो रहे थे. प्रोफेसर निर्मल चटर्जी पेशे से व्याख्याता थे और पीके राय कॉलेज में नौकरी करते थे. डॉ गौतम पेशे से डॉक्टर थे लेकिन जनसंघ के प्रति समर्पित रहे. उसके बाद सत्य नारायण दुदानी सहित अन्य लोग जुड़ते चले गए और जनसंघ भी धीरे धीरे फैलता गया. प्रोफेसर निर्मल चटर्जी तो विनोबा भावे विश्वविद्यालय के कुलपति तक पहुंचे. सत्य नारायण दुदानी मंत्री के कुर्सी तक आसीन हुए. डॉ गौतम को संभवत कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिला. समरेश दा तो मंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, झारखंड गठन के बाद बनी बाबूलाल मरांडी की सरकार में मंत्री रहे. धनबाद- बोकारो के राजनीति में वह एक बड़ा चेहरा थे. कहा तो यह भी जाता है कि 1980 में भारतीय जनता पार्टी के पहले अधिवेशन में समरेश सिंह ने ही पार्टी का चुनाव चिन्ह कमल फूल रखने का सुझाव दिया, जिसे सर्वसम्मति से मान लिया गया था. जानकार बताते हैं कि 1977 में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीते तो उनका चुनाव चिन्ह कमल ही था.
1985 और 1990 में बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े
1985 और 1990 में बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े और विजई रहे. 1985 में समरेश सिंह ने इंदर सिंह नामधारी के साथ मिलकर पार्टी से बगावत कर दी और संपूर्ण क्रांति दल का गठन किया. हालांकि कुछ ही समय बाद इस का बीजेपी में विलय कर दिया गया. 2009 में वह अंतिम बार विधायक बने. समरेश सिंह का 81 वर्ष की आयु में निधन हुआ है. वह लंबे समय से बीमार चल रहे थे. समरेश दा बोकारो के चंदनकियारी प्रखंड में लालपुर पंचायत के देवलटांड़ गांव के निवासी थे. अपने निवास पर आज सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली. 12 नवंबर को तबीयत खराब होने पर उन्हें पहले बोकारो फिर रांची स्थित मेदांता अस्पताल में भर्ती कराया गया था. 16 दिनों तक इलाज के बाद 29 नवंबर को समरेश दा बोकारो लौटे थे लेकिन आज सुबह वह इस दुनिया को छोड़ कर चले गए, लेकिन छोड़ गए हैं अपने पीछे समर्थकों की टोली और उंगली पकड़कर राजनीति सीखने वालों की लंबी कतार.
रिपोर्ट: सत्यभूषण सिंह, धनबाद