रांची(RANCHI)- ईडी स्पेशल कोर्ट ने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर सेना की जमीन हड़पने की साजिश रचने वाले सभी सातों आरोपियों को चार दिनों की रिमांड पर ईडी को सौंप दिया है, उन फर्जी दस्तावेजों को सामने रख कर अब ईडी के अधिकारी इनके काले कारनामों की कलई खोलेंगे. इस फैसले के साथ ही रांची के पूर्व उपायुक्त छवि रंजन की मुश्किलें भी बढ़ती नजर आ रही है.
पहले से ही ईडी के सवालों का जवाब तलाश रहे थें छवि रंजन
ध्यान रहे कि ईडी ने छवि रंजन को 21 अप्रैल को ईडी कार्यालय में उपस्थित होने का समन भेजा है. इसके पहले जब छवि रंजन के ठिकानों पर छापेमारी की जा रही थी, तब ईडी को छवि रंजन के आवास से एक प्रश्नोत्तरी हाथ लगी थी, जिसमें ईडी की ओर से पूछे जाने वाले सभी संभावित प्रश्नों के जवाब तलाशने की कोशिश की गयी थी.
कभी राजधानी रांची में बोलती थी इनकी तूती
यहां बता दें कि कभी इन भूमाफियों की राजधानी रांची में तूती बोलती थी, अब इनके कारनामों की एक एक फेहरिस्त सामने आ रही है, राजधानी रांची स्थित सेना की जमीन तो महज इसकी एक बानगी है, जिसे फर्जी दस्तावेजों के आधार पर हथियाने की साजिश रची गयी थी. प्रदीप बागची, बड़गाई अंचल के सीआई भानु प्रताप प्रसाद, अफसर अली, इम्तियाज अहमद, तलहा खान, फैयाज खान, सद्दाम हुसैन आदि इसके मुख्य किरदार थें.
सेना जमीन फर्जीवाड़े में एक साथ 21 ठिकानों पर हुई थी छापेमारी
बता दें कि ईडी ने इस मामले में रांची के पूर्व उपायुक्त छवि रंजन और घोटाले में शामिल सभी आरोपियों के खिलाफ पहले ही छापेमारी कर चुकी है, इसके मुख्य आरोपी प्रदीप बागची ने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर इस जमीन को कोलकाता के जगतबंधु टी इस्टेट प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक दिलीप कुमार घोष को बेची थी, अब उसकी गड़बड़शाला परते खुलने लगी तो एक से बढ़कर एक कारनामें सामने आने लगे हैं.
क्या 1932 में कोलकत्ता पश्चिम बंगाल का हिस्सा था?
दरअसल प्रदीप बागची का दावा है कि उसके पिता ने इस जमीन को उसके मूल रैयतों से 1932 में खरीदी थी, जिसका निंबधन कोलकता निंबधन कार्यालय में करवाया गया था, लेकिन उक्त जमीन के दस्तावेज में कोलकत्ता को पश्चिम बंगाल का हिस्सा दिखलाया गया है. अब सवाल यह है कि 1932 में तो सिर्फ और सिर्फ बंगाल ही था, पश्चिम बंगाल का अस्तित्व को भारत विभाजन के बाद 1947 में आया. जब बंगाल को दो टूकड़ों में विभाजित कर एक हिस्सा पाकिस्तान को दिया गया, तो दूसरा हिस्सा भारत में रहा, अखंड बंगाल के इसी हिस्से की पहचान भारत में पश्चिम बंगाल के रुप में हुई.
पिन कोड की शुरुआत 1972 में हुई, तो दस्तावेज में इसका जिक्र कैसे हुआ?
अब सवाल यह है कि जमीन के दस्तावेज में कोलकता को पश्चिम बंगाल का हिस्सा किस ऐतिहासिक आधार बताया गया. इसके साथ ही जमीन के दस्तावेज में क्रेता विक्रेता और गवाहों के पते की पहचान के लिए पिन कोड का उल्लेख किया गया है. जबकि पिन कोड की शुरुआत ही हुई है 15 अगस्त 1972 को. यह ऐतिहासिक चमत्कार को कैसे अंजाम दिया गया?
जमीन के दस्तावेज में भोजपुर जिले की चर्चा कैसे?
इसके साथ ही जमीन के दस्तावेज में एक और रोचक तथ्य और इतिहास की हेराफरी है. दस्तावेज में गवाहों को बिहार के भोजपुर जिले का बताया गया है, अब 1932 में भोजपुर जिला के रुप में अस्तित्व में आया ही नहीं था, एक जिला के रुप में भोजपुर 1972 में अस्तित्व में आया, इसके पहले यह शाहाबाद जिला का हिस्सा था. वर्ष 1972 में शाहाबाद को दो हिस्सों में बांटकर भोजपुर और रोहतास का निर्माण किया गया. जमीन के दस्तावेज में ऐतिहासित तथ्यों के साथ इतनी छेड़छाड़ सिर्फ इसलिए ही तो किया गया, क्योंकि भू माफिया प्रदीप बागची को इतिहास की बेसिक समझ नहीं थी.