Ranchi-भले ही झारखंड की दूसरी सीटों की तस्वीर साफ नहीं हो, भाजपा के महारथियों के सामने इंडिया गठबंधन का चेहरा कौन होगा? अभी इस पर संशय की स्थिति बनी हो, लेकिन जहां तक बात खूंटी लोकसभा की है, यहां इंडिया गठबंधन और एनडीए दोनों ही खेमों की तस्वीर साफ हो चुकी है. जहां भाजपा ने एक बार फिर से पूर्व सांसद अर्जुन मुंडा पर दांव लगाने का फैसला किया है, वहीं कांग्रेस ने अपने पुराने सिपहसलार कालीचरण मुंडा को एक बार फिर से अखाड़े में उतारा है, इस प्रकार वर्ष 2019 की तरह ही एक बार फिर से केन्द्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा और कालीचरण के बीच मुकाबला होना है.
वर्ष 2019 में करीब-करीब अर्जुन रथ को रोक चुके थें कालीचरण मुंडा
यहां ध्यान रहे कि वर्ष 2019 के मुकाबले में कालीचरण मुंडा ने अर्जुन मुंडा को कड़ी चुनौती पेश की थी, अर्जुन मुंडा किसी प्रकार जीत की औपचारिकता पूरी करते दिखे थें. तब अर्जुन मुंडा को कुल 3,82,638 वोट मिले थें, जबकि कालीचरण के खाते में 3,81,193 वोट आया था. यानि मुकाबला बेहद दिलचस्प था. इस हालात में इस बार का सियासी मुकाबला कौन सी करवट लेगा, सियासी गलियारों में चर्चा का विषय है. राजधानी रांची से लेकर दिल्ली तक की नजर इस मुकाबले पर बनी हुई है.
ध्यान रहे कि खूंटी भाजपा का परंपरागत सीट रहा है, अर्जुन मुंडा से पहले खूंटी से झारखंड की सियासत का एक बड़ा चेहरा और कद्दावर आदिवासी नेता कड़िया मुंडा मोर्चा संभालते थें, वर्ष 1989, 1991, 1996, 1998, 1999 और 2009 में उन्होंने इस सीट पर कमल खिला कर, इस आदिवासी बहुल राज्य में भाजपा की जड़ों को मजबूती प्रदान किया था. हालांकि वर्ष 2004 में कड़िया मुंडा को कांग्रेस के सुशीला केरकेट्टा के हाथों मात खानी पड़ी थी. लेकिन वर्ष 2009 में वापसी करते हुए कड़िया मुंडा ने एक बार फिर से कमल खिला दिया था और इसके साथ ही 2014 में भी जीत के इस काफिले को बरकरार रखा था. इस प्रकार कड़िया मुंडा ने कुल सात बार खूंटी प्रतिनिधित्व किया है. हालांकि उस दौर में भी कालीचरण मुंडा ने कड़िया मुंडा की राह रोकने की कोशिश की थी. लेकिन तब भी सफलता नहीं मिली थी.
कालीचरण का दावा 2019 में अर्जुन मुंडा की जीत लोकतंत्र पर डाका
ध्यान रहे कि वर्ष 2014 में कालीचरण मुंडा ने कांग्रेस का परचम फरहाने की कोशिश की थी, लेकिन तब कालीचरण मुंडा को झारखंड पार्टी के एनोस एक्का की इंट्री के कारण तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा था. लेकिन 2019 आते-आते यह तस्वीर बदल गयी और वह जीत के बेहद करीब आकर भी पिछड़ गयें, हालांकि कालीचरण मुंडा का दावा है कि जनता ने जीत का वरमाला तो पहना दिया था. उनकी जीत का एलान भी हो गया था, लेकिन एन वक्त पर सत्ता का दुरुपयोग हुआ और जीत को हार में तब्दील कर लोकतंत्र पर डाका डाला गया. इस बार खूंटी की जनता इसका बदला लेगी और हार जीत का मार्जिन इतना बड़ा होगा कि कोई भी डाका काम नहीं आयेगा.
इस बार क्या होगी सियासी तस्वीर?
यदि बात हम सियासी समीकरण की करें तो खूंटी लोकसभा के अंतर्गत विधान सभा की कुल छह सीटें आती है, इसमें से खरसांवा विधान सभा पर झामुमो (दशरथ गगराई), तमाड़-झामुमो (विकास कुमार मुंडा), तोरपा-भाजपा(कोचे मुंडा), खूंटी-भाजपा (नीलकंठ सिंह मुंडा), सिमडेगा-कांग्रेस( भूषण बारा) और कोलेबिरा- कांग्रेस (नमन बिक्सल कोंगारी) का कब्जा है. यानि कुल छह विधान सभा में से दो पर झामुमो, दो पर कांग्रेस और दो पर भाजपा का कब्जा है. एक बात और गौर करने वाली है कि अर्जुन मुंडा के खिलाफ ताल ठोक रहे कालीचरण मुंडा खूंटी से भाजपा विधायक नीलकंठ सिंह मुंडा के भाई है और दावा किया जाता है कि वर्ष 2019 के मुकाबले में जब वह अर्जुन मुंडा के खिलाफ कालीचरण सिंह जीत का ताल ठोक रहें थें, नीलकंठ सिंह मुंडा उस चुनावी समर से गायब थें. जिसका लाभ कालीचरण मुंडा को मिला था. इस बार के सियासी भिड़ंत में नीलकंठ सिंह मुंडा की क्या भूमिका होगी, एक बार फिर से सवालों के घेरे में हैं. रही बात सामाजिक समीकरण की तो याद रहे कि खूंटी में अनुसूचित जनजाति- 60 फीसदी, अनुसूचित जाति-6 फीसदी, मुस्लिम-5 फीसदी और इसके साथ ही कुर्मी मतदाताओं की एक बड़ी आबादी है. दावा किया जाता है कि इस बार कुर्मी मतदाताओं के बीच अर्जुन मुंडा को लेकर नाराजगी पसरी है, और इसका कारण है केन्द्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा के द्वारा कुर्मी जाति को साफ शब्दों में आदिवासी सूची में शामिल करने से इंकार करना.
मुश्किल हो सकती है अर्जुन मुंडा की राह
स्थानीय जानकारों का दावा है कि इस बार अर्जुन मुंडा की राह थोड़ी मुश्किल है, उन्हे दो मोर्चो पर लड़ाई करनी पड़ रही है, जहां आदिवासी समाज में रोष इस बात को लेकर है कि जीत के बाद अर्जुन मुंडा ने कभी खूंटी का रुख नहीं किया, खूंटी के स्थानीय मुद्दों का समाधान की कोशिश नहीं की, आदिवासी समाज के ज्वलंत मुद्दों पर चुप्पी साधी, वहीं दूसरी ओर कुड़मी जाति की नाराजगी अनूसूचित जाति में शामिल करने की मांग को खारिज करने के कारण है. इस हालात में अर्जुन मुंडा राह इस बार भी आसान नहीं दिख रही. हालांकि अभी तक भाजपा की ओर से किसी स्टार प्रचारक ने मोर्चा नहीं संभाला है, देखने की बात होगी कि पीएम मोदी की रैली के बाद इस तस्वीर में क्या बदलाव आता है या फिर यह गुस्सा अंतिम समय तक बना रहता है. वैसे भाजपा के रणनीतिकारों के द्वारा इसकी काट जरुर खोजी जा रही होगी. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या पीएम मोदी की गर्जना के साथ ही जमीन की यह नाराजगी छू मंतर हो जायेगी? और एक बार से पूरा खूंटी मोदीमय नजर आने लगेगा. फिलहाल इस सवाल का जवाब के लिए इंतजार करना होगा.
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