इमरोज़ की पीठ पर साहिर का नाम लिखने वाली अमृता की प्रीतम कहानी


टीएनपी डेस्क (TNP DESK): पंजाबी में लिखने वाली अमृता प्रीतम (31 अगस्त 1919-31 अक्टूबर 2005) की पहचान ग्लोबल है. इश्क़ का जिक्र जब छिड़ेगा, अमृता का नाम लब पर आ जाएगा. और इसमें दो नाम भी हमेशा लिये जाएंगे- साहिर और इमरोज़. मोहब्ब्त जीया कैसे जाए. यह इन तीनों की जिंदगी बताती है. संगीतकार जयदेव के मार्फत आम हुआ एक किस्सा है. एक बार जयदेव, साहिर के घर गए. दोनों किसी गाने पर काम कर रहे थे. तभी जयदेव की नजर एक गंदे कप पर पड़ी. उन्होंने साहिर से कहा कि ये कप कितना गंदा हो गया है, लाओ इसे साफ कर देता हूं. तब साहिर ने उन्हें चेताया था, 'उस कप को छूना भी मत. जब आखिरी बार अमृता यहां आई थी तो उसने इसी कप में चाय पी थी'. अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम लिखती हैं, 'जब हम मिलते थे, तो जुबां खामोश रहती थी. नैन बोलते थे. दोनों बस एक टक एक दूसरे को देखा किए'. और इस दौरान साहिर लगातार सिगरेट पीते रहते थे. मुलाकात के बाद जब साहिर वहां से चले जाते, तो अमृता अपने दीवाने की सिगरेट के टुकड़ों को लबों से लगाकर अपने होठों पर उनके होठों की छुअन महसूस करने की कोशिश करती थीं. अमृता रसीदी टिकट में एक वाक़या का जिक्र करती हैं, जब वो और साहिर साथ में थे. साहिर बीमार थे. अमृता प्रीतम ने उनके बिस्तर के बगल में बैठकर उनके सीने और बाहों पर विक्स लगाया. इस नजदीकी का जिक्र करते हुए अमृता ने लिखा है कि, 'काश! मैं उस लम्हे को हमेशा जी सकती'. लेकिन इतनी शिद्दत के बावजूद दोनों कभी एक न हो सके। किसी गीत में इसे साहिर ने इस तरह ढाला:
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा.
बात 1944 की है. उर्दू के शायर साहिर लुधियानवी और पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम की मुलाक़ात होती है. उस जगह का नाम भी मोहब्ब्त से लबरेज़- प्रीत नगर. लाहौर और दिल्ली के बीच यह जगह पड़ती है. दोनों एक मुशायरे में शिरकत के लिए प्रीत नगर पहुंचे थे. दोनों की आंखें चार हुईं और दोनों परस्पर दिल दे बैठे. हालांकि तब प्रीतम शादीशुदा थीं. उनके पति का नाम प्रीतम सिंह था. बचपन में ही तय कर दी गई इस शादी से अमृता खुश नहीं थीं. साहिर से मिलने के बाद उनकी जिंदगी में खुशनुमा बहार की एंट्री हो गई. तब मोबाइल तो था नहीं. फोन भी बेहद कम. इनकी मोहब्ब्त खतो-किताबत में परवान चढ़ने लगी. अमृता साहिर को मेरा शायर, मेरा महबूब, मेरा खुदा और मेरा देवता लिखकर संबोधित करती थीं. साहिर लाहौर और अमृता दिल्ली. खतों ने इस फ़ासले को कम किये.

साहिर की जीवनी, साहिर: अ पीपुल्स पोएट, लिखने वाले अक्षय मानवानी कहते हैं कि अमृता वो इकलौती महिला थीं, जो साहिर को शादी के लिए मना सकती थीं. एक बार साहिर लुधियानवी ने अपनी मां सरदार बेगम से कहा भी था, 'वो अमृता प्रीतम थी. वो आप की बहू बन सकती थी'. इस मोहब्बत की राह में कई रोड़े थे. साहिर जब मुंबई में रहने लगे तब भी राह आसान न हुई. हालांकि अमृता पति से अलग भी हो गईं. दोनों के एहसास उनके गीत, कहानी और रचनाओं में पाठकों को भावुक करते रहे.
साठ के दशक तक आते-आते अमृता की ज़िंदगी में चित्रकार इमरोज़ आए. 1964 में अमृता साहिर से मिलने मुंबई पहुंची तो उनके साथ इमरोज़ भी थे. तब साहिर ने लिखा था-
महफिल से उठकर जाने वालों
तुम लोगों पर क्या इल्जाम
तुम आबाद घरों के वासी
मैं आवारा और बदनाम.

अमृता के इश्क़ का खात्मा साहिर के सुधा मल्होत्रा की तरफ झुकाव से हुआ. मगर वो कभी अमृता को दिल से निकाल नहीं पाए. इधर अमृता का हाल यह रहा कि इमरोज की पीठ पर साहिर लिखा करती थी. इमरोज़ को महसूस कीजिये, उनके प्रेम की गहराई. वो अमृता से अपनी पीठ पर साहिर का नाम लिखवाते रहे.
एक बार अमृता ने इमरोज़ से पूछा था कि क्या तुमने woman with mind' paint की है..? उत्तर इमरोज़ के पास भी नहीं था लेकिन इमरोज़ ने लिखा:
चलते चलते मै रुक गया..
अपने भीतर देखा... अपने बाहर देखा...
जवाब कही नही था...
चारो ओर देखा...
हर दिशा की ओर देखा ..
और..
किया इंतजार....
पर न कोई आवाज आई....न कही से प्रतिउत्तर...
जवाब तलाशते तलाशते..
चल पड़ा और पहुंच गया...
Painting के classic काल में...
अमृता के सवाल वाली औरत..!
औरत के अंदर की सोच..!
सोच के रंग....!
न किसी Painting के रंगो में दिखे.....!
न किसी आर्ट ग्रंथ में मुझे नज़र आए...!!
उस औरत का..
उसकी सोच का जिक्र तलाशा...
हाँ...!
हैरानी हुई देख कर ...!
किसी चित्रकार ने औरत को जिस्म से अधिक ....
न सोचा लगता था...!
न पेंट किया था...!
सम्पूर्ण औरत जिस्म से कहीं बढ़कर होती है ....!!
सोया जा सकता है औरत के जिस्म के साथ........
पर सिर्फ जिस्म के साथ जागा नही जा सकता........!!
अगर कभी चित्रकारों ने....
पूर्ण औरत के साथ...
जाग कर देख लिया होता...
और की और....!
हो गई होती चित्रकला अब तलक...
माडर्न आर्ट में तो कुछ भी साबुत नही रहा ...
न औरत न मर्द....!
और..
न ही कोई सोच.....!
गर कभी मर्द ने भी औरत के साथ...
जाग कर देख लिया होता...
बदल गई होती जिन्दगी ......!
हो गई होती जीने योग्य जिंदगी ....!
उसकी और उसकी पीढ़ी की भी......!!

राइटर सुनंदा पराशर लिखती हैं कि खुशवंत सिंह ने अमृता प्रीतम से कहा था कि तुम्हारी आत्मकथा क्या है, पूरे जीवन का लेखा-जोखा एक रसीदी टिकट पर लिखा जा सकता है. अमृता अपने लेखन के विषय में कहती थी, 'माण सच्चे इश्क दा है, हुनर दा दायवा नहीं (गर्व सच्चे इश्क पर है, हुनर की दावेदारी नहीं). अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ की भूमिका में अमृता प्रीतम लिखती हैं – ‘मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं. मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएं पैदा हुईं। एक नाजायज बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और इन्होंने सारी उम्र साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगते हैं.’
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